॥ प्यासी धरती ॥

उन्मुक्त गगन में विचरण करता

रे बादल आवारा

सूरज की तपिश से धरती है प्यासी

धरती पर तुँ जल बरसा जा


हवा संग अठखेलियाँ क्यूं खेलता

रे बादल आवारा

दूर गगन की छाँव में क्यूँ बैठा

धरती पर तुँ आ जा


सूरज की तीखी गरमी से

तन मन बैचेन है यारा

प्यासी धरती कब से है तड़पती

धरती पर जल बरसा जा


खेतों में बैठा किसान भी

तेरी राह है देखता

बिचड़े खेतों में सूख सूख कर

खेतों में दम है तोड़ता


ताल तलैया कब का सूख चुके

उनकी तूँ प्यास बुझा जा

कुँआ नदियाँ खुद प्यासी है

उनकी भी प्यास बुझा जा


त्राही त्राही है जन जीवन गरमी से

रे बादल अब तो समझ जा

वन उपवन की कलियाँ मुरझा गई

धरती पर जल बरस जा


प्यास बुझाने वाली जब खुद प्यासी

समय की नजाकत तो समझ जा

रे बादल आवारा अब तो

धरती की प्यास बुझा जा  ।


उदय किशोर साह

मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार

9546115088