"पंत का जीवन, प्रकृति, प्रेम और सौंदर्य"


"पंत का जीवन, प्रकृति, प्रेम और सौंदर्य"

पंत जीवन को परिवर्तन मानते हैं, साथ ही उसे शाश्वत भी। इस परिवर्तनों के भीतर अपरिवर्तन छिपा बैठा है। उसमें जन्म -मरण का सूत्र गुम्फित है। इसीलिये जन्म और मृत्यु इस जगत-जीवन के दो द्वार हैं। कवि ने जन्मांतर को माना है। वह मुक्ति की कामना नहीं करता है क्योंकि जब तक हमलोग विश्व में मनस्तत्व के इन नाम रूप के कोषों के धारण करेंगे मानव जाति विश्राम नहीं ले सकेगी। बीज संसार को पत्र, पुष्प, फल देकर फिर बीज में ही परिणत हो जाता है यही सृष्टि का रहस्य है।

इसीलिये उन्होंने कहा है-

"तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!" ( तप रे मधुर मधुर मन)

जीवन असीम है। पंत की कविताओं से ज्ञात होता है कि मानव और मानवेतर दोनों चेतन हैं। चेतनता असीम में है पर असीम कणों में असीम की अभिव्यंजना भी छायावाद का महत्वपूर्ण उपादान है।

'Life is eternal and life is all pervading.'
पंत की कविताएं इसी अनुभूति की अभिव्यंजना करती है। जीवन सुखमय है पर कवि का कथन है कि-

"बिना दुःख के सुख निस्सार
बिना आँसू के जीवन भार ।"

दुःख कवि जीवन के लिये इसीलिये प्यारा है कि वह सुख को मधुर बना देता है। सुख के माधुर्य को बढ़ाने के लिये दुःख है। इसके उपरांत जीवन में सुख दुःख का सामंजस्य चाहता है-

"पंत की प्रकृति चेतन है, सजीव है, जड़ नहीं है। फूल प्रकृति नहीं बल्कि इसके अंतर जो चेतन है वह प्रकृति है। यह अणु अणु में व्याप्त है, इसीलिये प्रकृति मुर्झाती नहीं है। प्रकृति आनंदमय है और मानव भी क्योंकि दोनों एक ही ब्रह्म हैं जड़ चेतन भी ब्रह्म हैं अर्थात सबकी उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है। असंख्य कोटि के जीवों एवं मनुष्यों से युक्त वन उपवन, मरु, उर्वर, पर्वत समुद्रों से निर्मित यह पृथ्वी समस्त विभिन्नताओं के रहते हुए भी एक है। प्रकृति मानव के लिये अपरिचित नहीं है। दोनों का युग-युग से परिचय है वह, देवी, माँ, सहचरी और प्राण के रूप में हैं। देवी में admiration है। माँ इसीलिये की प्रकृति से शांति मिलती है। सहचरी और प्राण इसलिये कि उसमें कवि का प्राण स्पंदित है। सौंदर्य को नारी की मूर्ति दी गई है। सौंदर्य का सम्बंध कोमलता से है। कवि के।शब्दों में प्रकृति को मैंने अपने से अलग सजीव सत्ता रखनेवाली नारी के रूप में देखा है-

'उस फैली हरियाली में
कौन अकेली खेल रही माँ
वह अपनी वयवाली में -

जब जब मैंने प्रकृति से तादात्म्य अनुभव किया तब -तब मैंने अपने को भी नारी रूप में अंकित किया, यही कारण है कि उन्होंने प्रकृति के पुरुष पक्ष को सर्वथा अपने से दूर रखा सिर्फ परिवर्तन को छोड़कर यों तो बलिदान होने वाले युवकों में कम सौंदर्य नहीं है पर पंत का कवि इसे अंकित नहीं करता उदाहरणस्वरूप ' मधुवन' शीर्षक गीत को लीजिये। प्रेयसी की उपस्थिति के कारण प्रकृति में बसंत का आगमन हो गया है-

आज वन में पिक, पिक में गान
विटप में कलि, कलि में सुविकास
कुसुम में रज, रज में मधुप्राण
सलील में लहार, लहर में लास।

सौंदर्य प्रत्येक जीवन में एक स्निग्ध भावना का आविर्भाव करता है। सौंदर्य कवि पंत को अपनी ओर खींचता हूं। यही कारण है कि इनके ह्रदय में सौंदर्य की जितनी भावना व्याप्त रही हैंउसी अनुपात के अनुसार इन्होंने सौंदर्य नहीं सृष्टि की है। पंत का सौंदर्य रूप सौंदर्य नहीं बल्कि भावात्मक है। इनका भाव सौंदर्य अंग्रेजी के कवि शेली की भांति है। कालिदास ने अपने काव्य में भाव सौंदर्य को ही प्रधानता दी है पर रूप सौंदर्य को सर्वथा त्याज्य नहीं मानते। यही बात पंत के साथ भी है।
कवि का हृदय सौंदर्य का ही निरूपण करता है। सृष्टि के कण-कण में सौंदर्य की चांदनी है। सौंदर्य के प्रति कवि के मन में तन्मयता है। सौंदर्य के प्रति स्वयं कवि खींचा चला आ रहा है, पर पहचानने में असमर्थ है। इसी को एक ऊर्दू शायर 'जिगर मुरादाबादी' ने कहा है-

"कुछ खटकता तो पहलू में
मेरे रह-रहकर
अब खुदा जानें तेरी याद है
या दिल मेरा।"

ह्रदय में जो अगोचर सौंदर्य है उसी रहस्यमय सौंदर्य को पाना जीवन का सच्चा आनंद है। सौंदर्य ह्रदय में भरा है, उसके बाहर नही है। श्री शांतिप्रिय द्विवेदी के शब्दों में-
"सौंदर्य का प्रथम कमल प्रेम के क्षीर सागर में सोए हुए भगवान की नाभि में फूटा था न कि वासना के क्षार समुद्र में।"
सौंदर्य को देखने के लिए हमारी सृष्टि क्षीर सागर की तरह प्रशस्त और उज्ज्वल होनी चाहिए। माताओं ने इसीलिये सौंदर्य के शिशु को दूध से सींच-सींच कर लाड़-प्यार किया। सौंदर्य निराकार एवं निर्विकार है। अंग्रेजी कवि ने लिखा है- 'Beauty is God and God is Beauty' अर्थात ईश्वर ही सौंदर्य है और सौंदर्य ही ईश्वर है। कवि ने सौंदर्य को परियों का संसार माना है। कवि सौंदर्य का उपासक है, पर अज्ञात सौंदर्य के प्रति अनजान है।
सौंदर्यमयी भावना दो प्रकार की है- एक व्यापक और दूसरी व्यक्तिगत। व्यापक भावनामय सौंदर्य का दृष्टि बिंदु अंत में आध्यात्मिक रूप पाकर अनंत सागर की लहरों में लहरा जाता है पर व्यक्तिगत भावनागत सौंदर्य अथवा प्रेम का सम्बंध की क्रीड़ा ह्रदय में मोद मधुरिमा की झलक दिखा, स्वर्गीय सुषमा से आह्लादित हो उठते हैं।

व्यक्तिगत भावात्मक सौंदर्य का रूप भावी पत्नी के प्रति है-

"प्रिय प्राणों की प्राण
न जाने किस गृह में अनजान
छिपी हो तुम स्वर्गीय विधान
नवल कलिकाओं की सी वाण
बाल-रति सी अनुपम असमान
न जाने, कौन, कहाँ अनजान
प्रिय प्राणों की प्राण।"

इसी सौंदर्य से कवि को प्रेम है। उनका प्रेम शाश्वत है, चिरंतन है और नित्य है। उनके आरएम में वह विरह नहीं, वह तड़पन नहीं, वह छटपटाहट नहीं जो सुर की राधा में है। यह उनके गीतों में स्पष्ट है। उनके आध्यात्मिक आरएम में विकलता नहीं बल्कि मिलन ही मिलन है। ग्रन्थि में विरह और व्याकुलता है। 'पल्लव' में तो कवि की आंखों में सावन भादों सजे है और 'गुंजन' में नहीं। पंत के प्रेम का आलम्बन स्थूल नहीं है, भावात्मक ही है। प्रेम का आलम्बन असीम होते हुए भी असीम नहीं। वर साम्प्रादायिक रहस्यवादी कवि नहीं हैं बल्कि छायावादी हैं। असीम के प्रति जिज्ञासा अवश्य है, पर प्रेम नहीं, उनका प्रेम परोक्ष प्रकृति से है।

इस तरह हम देखते है जीवन में प्रकृति है। प्रकृति में सौंदर्य और सौंदर्य के प्रति प्रेम है। इस प्रकार, जीवन, प्रकृति, सौंदर्य और प्रेम एक सूत्र में बंधे हुए हैं । इनके प्रति उनका जो विचार है उससे अपूर्व मिठास का रसास्वादन मिलता है और असीम जगत एक उल्लास, मादकता एवं मधुरता प्रदान करता है।

संतोष पटेल,दिल्ली ।