हम है नदी के द्वीप हम धारा नही है,
मन मेरा अज्ञेय -सा हारा नही है।
छोर से छोर को बांध ल लेकिन,
जिन्दगी के सेतू का किनारा नही है। 01
बादल जो गरजते है ओ बरसते नही है,
लाख समझाओ पर समझते नही है।
कोयले का साथ करके देख लिया मैने,
रगड़ करते रहो पर चमकते नही है। 02
जीवन मे अब मधुमय वसन्त नही होगा,
पर मेरे सपनो का भी अन्त नही होगा,
तुम बनो लाख शकुन्तला चाहे जितना,
पंकज अब फिर-फिर दुष्यंत नही होगा। 03
यह फैसला तुम्हारा हमे हैरान कर रहा है,
फिर भी मेरा मन सम्मान कर रहा है।
जिसे जीवन रस पीने का ढंग भी नही,
वह तुम्हारे हाथो से विषपान कर रहा है। 04
प्यार मे पंकज पीर कबसे सह रहा है,
रोक दो नैन से नीर कबसे बह रहा है।
कर लो नवल श्रृंगार तुम आज फिर से
यह माँग का सिन्दूर तुमसे कह रहाँ है। 05
आज उनकी हकीकत देखकर आया हूँ,
उनके छत पर कबूतर भेजकर आया हूँ।
सुना हूँ गंध फूलों की बहुत पसन्द है उन्हे,
इसलिए एक गुलाब फेंककर आया हूँ। 06
मै मुख मे राम बगल मे छूरा नही रखता,
जिन्दगी का जोड-घटना पूरा नही रखता।
हम तो अपनी मस्ती में रहा करते है लेकिन,
इश्क हो या जंग हो अधूरा नही रखता। 07
डाॅ.पंकज शुक्ल 'प्राणेश',वरिष्ठ साहित्यकार
एवं समीक्षक,राष्ट्रीय अध्यक्ष साहित्य शक्ति
संस्थान पुरैना शुक्ल,बरहज,देवरिया-
9838789538