ओढ़नी

हे प्रिय मत छोड़ना तुम ओढ़नी का ओढ़ना।

ओढ़नी सम्मान है लाज नारी की पहचान है।

ओढ़नी है मां का आंचल ममता की छांव है,

सर देवियों के सजे ये सौंदर्य का प्रतिमान है।


रोकती है कुदृष्टियों की दृष्टियों के साहस को,

दामन है खुशियों भरा संभालता हर राज को।

गांठ बांधती ओढ़नी सभ्यता की सीख भरकर,

संभाल कर रखती है ये मर्यादा में लिबास को।


बनती स्वाभिमान जिसमें सजी स्त्री की पूर्णता,

गौरव है वस्त्रों का प्रमुख रंगो से सजी है नम्रता।

रंगो भरी बन लाज प्रहरी मान बढ़ाती स्त्रीत्व का,

संभाले कुल की परंपरा ओढ़नी में छिपी रम्यता।


सौंदर्य में दिखे पूर्णत्व का आभास है ओढ़नी,

बांध ले नेह में निज उड़कर छुए जब ओढ़नी।

स्वप्न है प्रिय मेरा तुम्हें घूंघट के पट में देखना,

हे प्रिय मत छोड़ना तुम ओढ़नी का ओढ़ना ।


स्वरचित एवम मौलिक

कंचन वर्मा

शाहजहांपुर

 उत्तर प्रदेश