आनंद जीवन का मकरंद

सत चिद आनंद, सच्चिदानंद, यानी सत्य से भरे मन में आनंद का वास होता है, खुशी का निवास होता है और संतोष का स्थान होता है।

क्या बात है, बहुत खुश हो। प्रफुल्लित हो गाना गा रहे हो?

देश खुश नहीं है इसलिए मतलब देश के दुख दर्द से, समस्याओं से तुम्हें कुछ लेना देना नहीं है?

है न! तभी तो मैं गा रहा हूं। अगर मैं प्रफुल्लित हूं, खुश हूं, आनंदित हूं, प्रसन्नचित्त हूँ तो देश भी खुश होगा, प्रफुल्लित होगा।

तुम्हारी बातें कुछ समझ में नहीं आ रही हैं।

कोई न समझे वाली बात नहीं है, देश का मतलब मिट्टी नहीं।

हां हां मालूम है। देश का मतलब मिट्टी नहीं है। मानव है, समाज है।

अगर हर व्यक्ति खुश रहेगा, तभी न देश खुशहाल होगा - यही बात हमारे बड़े  बताते रहे हैं।

वह सब तो ठीक है। लेकिन इस समय सुख, संतोष और आनंदमय बातों का क्या अर्थ है? मुझे समझाओ तो!

विश्व की प्रसन्नता सूची में हमारा देश काफी पिछड़ा हुआ है। फिनलैंड विश्व में पहले नंबर पर है इस सूची में। उसके बाद डेनमार्क, आइसलैंड, स्विट्जरलैंड हैं। इसका मतलब है कि वहां के लोग बिना किसी तकलीफ के, समस्या विहीन जीवन जी रहे हैं।  है न?

हां! मैंने भी पढ़ा है। हमारा देश पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा बेहतर हुआ है।

पिछले साल हमारा देश खुशहाल देशों की सूची में 139 वां रहा। जबकि आज इस बार हम 136 वें स्थान पर पहुंचे हैं।

इसे आप बेहतरीन बेहतरीन कहते हैं?  ठीक है।  इस सूची में पहले 10 स्थानों पर जो देश हैं, इतने खुश और प्रसन्न कैसे हैं?

इसमें बड़ी बात क्या है? वे देश कभी युद्ध की तरफ नहीं जाते। कोविड-19 के महामारी के विध्वंस को भी बड़ी चतुराई और कुशलता के साथ संभाला और जल्दी बाहर आ गए। प्रगति पथ पर वे आगे बढ़ते गए। कुल 146 देशों में यह अध्ययन किया गया। दशाब्दियों से बंदूकें, बम के शोरगुल से हंगामा मचाता अफगानिस्तान खुशी और प्रसन्नता से कोसों दूर है। इसलिए बड़े असमंजस की स्थिति में सबसे अंतिम स्थान पर है। कुछ भी हो पहली श्रेणी में जो 10 देश हैं, उनकी तुलना में हमारे जीवन सुख और संतोष से दूर हैं- यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं।

सुख और संतोष…… बड़े अच्छे शब्दों का इस्तेमाल करके तुमने मुझे असमंजस में डाल दिया। उसकी बात छोड़ो। महंगाई आसमान पर, प्रदूषण वातावरण में - ऐसी स्थिति में जीना भारी हो गया है और सच कहा जाए तो नर्क की यातना भुगतने जैसी हालत हो गई है।

अरे क्या याद दिला दिया तुमने भी? उन यातनाओं  के बारे में याद न ही दिलाओ तो बेहतर है। इसलिए कह रहा हूं कि सोच सोच कर खुश रहने की आदत डालो, जैसे कि मैं कर रहा हूं।

फिर यह क्या कह दिया तुमने?

पिछले दिनों - खुश कैसे रहें – विषय पर एक आध्यात्मिक गुरु जी का भाषण सुन रहा था। उन्होंने एक तकनीक बताई कि हम खुद को हमेशा खुश रखें। प्रसन्न रखें या कहें तो कल्पना करें कि हम खुश हैं। और इसके कारण हमारे आसपास का वातावरण और हम खुश रहेंगे।  प्रसन्नचित्त रहेंगे - ऐसा उन्होंने कहा।

वह कैसे? खाने के लिए पर्याप्त भोजन, रहने के लिए मकान, कमाने के लिए एक अदद नौकरी जिंदगी को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ऐसे में बिना इन सब के आदमी खुश रहे तो कैसे?

स्वामी जी ने कहा था कि धन से संतोष है, बंगले से खुशी है, कार से प्रसन्नता है – ये सारी चीजें तुच्छ हैं, बेकार हैं। उनका कहना है कि मनुष्य के खुश रहने के पीछे है यही सारे कारण काम करते हैं। याद करो बुद्ध भगवान ने भी ऐसा ही कहा था - अपने पास कुछ न हो तब भी हम यह सोचें कि हम कितने खुश हैं, कितने प्रसन्न हैं, मेरे आस-पास का परिसर कितना खुशनुमा है। मेरा राज्य, मेरा देश अद्भुत है, अद्वितीय है। ऐसा सोचते रहने में वास्तविक आनंद छुपा है जैसा कि गुरु जी कह रहे थे।

वह सब तो ठीक है। लेकिन कम से कम जीवन की जरूरतें तो पूरी हों!

वही तो सारा मामला फंसा पड़ा है। पहले हम सोचते हैं कि खाने के लिए अच्छा मिल जाए तो बेहतर है। उसके बाद लगता है कि अच्छा सा घर हो तो हम खुश रहेंगे। उसके बाद होता यह है कि हमारी खुशी का पैमाना कार की तरफ बढ़ जाता है। और यहीं नहीं रुकता।  उसके बाद अपने आसपास के लोगों से अपनी तुलना करना शुरू कर देते हैं। मतलब यह है कि हम अपनी इच्छाओं और जरूरतों को अपनी खुशी से ज्यादा तवज्जो देते हैं, इसलिए चाहिए कि स्वयं को सदा खुश मानकर चलना चाहिए - जैसा कि स्वामी जी कहते हैं। यही उत्तम मार्ग है। हमेशा वर्तमान में जिएं - जैसा कि हमारे दार्शनिक कहते हैं।

तुम्हारा कहना यही है कि अपने पास कुछ भी न हो, भूखे, प्यासे हों,  बेघर हो, फिर भी कल्पना में खुश रहने की आदत डालना चाहिए। यही मतलब यह है कि खुश हों या न हों, खुश रहने का अभिनय करना होगा।

न न ।  ऐसा नहीं है।  धन, दौलत, जायदाद, ऊंच-नीच, पद प्रतिष्ठा सारा कुछ तुच्छ है। अब हम यह सोचें कि जो कुछ मेरे पास है, उसमें कोई कमी नहीं है, मुझे किसी तरह का लालच नहीं है तो धन, दौलत, सोना, चांदी के प्रति हमारा मोह जाता रहेगा और आनंद अपने आप हमारे मन में प्रकट होगा।

उन जैसे महान स्वामियों के लिए यह संभव हो सकता है जो बिना मोह के बेंज़ कार में चलते हैं, बिना इच्छा के बड़े बड़े भवनों में शयन करते हैं, शरीर पर गेरू पहनते हैं लेकिन मठों, आश्रमों के नाम पर बैंक में करोड़ों रुपये होते हैं।  लेकिन हम जैसे आम औसत आदमी के लिए यह संभव है क्या? कितना कष्ट उठाना पड़ रहा है?

आम और औसत आदमी हैं तो क्या? हमें भी ऋषि मुनियों की तरह उतने उत्कृष्ट अवस्था में पहुंचने के लिए आवश्यक क्लिष्ट परिस्थितियों का निर्माण हमारे नेतागण कब का कर चुके हैं। उन्हें  लगता है कि हममें  कोई बदलाव नहीं आएगा, कोई फर्क नहीं पड़ेगा, हम प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करेंगे, यही सोच सोच कर वे हम पर नए से नए भार लादते जा रहे हैं। इतनी संश्लिष्ट और क्लिष्ट परिस्थितियों में  कल्पना में जीने वाली धारणा को हम नहीं अपनाएंगे तो कैसे होगा? इसलिए मैं अभी से कल्पना लोक में जा चुका हूं। अब बचे तुम जैसे लोग भी आ जाएं तो कल्याण हो जाए। आनंद ही जीवन का मकरंद है - यही हमारा सिद्धांत है।

डॉ0 टी0 महादेव राव

विशाखपटनम (आंध्र प्रदेश)

9394290204