राम नाम सत्य है

परीक्षा का दबाव झेलने के लिए खुद को सामर्थ्यवान बनाने की सीख देने भर से बच्चे जीवन के तनाव को झेलने के लिए तैयार नहीं हो जाएंगे। उसके लिए उन्हें सकारात्मक माहौल भी बना कर देना पड़ेगा। मगर इस वक्त देश के आम आदमी के हिस्से में निराशा का अंधेरा ही भरा हुआ है। इस अंधेरे को दूर करने के लिए जब कोई उपाय नहीं सूझता तो वह भगवान की शरण में जाता है और यहीं भाजपा लाभ लेने पहुंच जाती है। मम्मी पापा आई कान्ट डू जेईई, सो आई सुसाइड, आई एम लूजर, आई एम वर्स्ट डॉटर, सॉरी मम्मी पापा, यही लास्ट ऑप्शन है। और इन पंक्तियों के साथ ही 19 बरस की निहारिका का संभावनाशील जीवन खत्म हो गया। मां-बाप ने बड़े चाव से नाम रखा होगा कि उनकी बच्ची का जीवन आकाशगंगा की तरह जगमगाता रहेगा। 

लेकिन केवल 19 साल की उम्र में निहारिका ने अपने जीवन में छाई निराशा को इतना गहन अंधकार समझ लिया कि उसने जीने की जगह मरने का विकल्प चुना। निहारिका ने खुद को लूजर यानी हारा हुआ समझा और उसके बाद अपने मम्मी-पापा को सॉरी कहते हुए बता दिया कि यही लास्ट ऑप्शन है। कोटा में जेईई मेन्स की तैयारी कर रही निहारिका का 30 जनवरी को इम्तिहान था और उससे एक दिन पहले 29 जनवरी को उसने आत्महत्या कर ली। कोचिंग संस्थाओं के गढ़ कोटा में पिछले साल 30 छात्रों ने परीक्षाओं के दबाव और नतीजों के कारण आत्महत्या की है, इस साल अभी दो ही आत्महत्याओं की खबर आई है। 

निहारिका से पहले 24 जनवरी को एक 18 साल के लड़के ने खुद की जान ले ली थी, उसे नीट की परीक्षा में बैठना था। वैसे बीते एक सप्ताह में देश के अलग-अलग शैक्षणिक संस्थानों में और भी बच्चों ने आत्महत्याएं की हैं, लेकिन अब जवान मौत की खबरें तब तक सुर्खियां नहीं बनतीं, जब तक उनमें कोई सनसनीखेज तथ्य, प्रेम त्रिकोण या एकतरफा प्रेम का कोण नजर नहीं आए। देश के नौजवान निराश होकर मौत को गले क्यों लगा रहे हैं, ऐसे गंभीर सवालों पर चर्चा करने अगर बैठ जाएं तो फिर मंदिर का काम कौन करेगा। रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी है, लेकिन अभी सत्ता की प्रतिष्ठा और परीक्षा दोनों बाकी है। 

निहारिका ने खुद को लूजर मान लिया, लेकिन क्या आत्महत्या करने से पहले उसे मोदीजी की परीक्षा पर चर्चा का 7वां एपिसोड नहीं सुन लेना चाहिए था। क्या पता मोदीवाणी सुनकर मन के विचार बदल जाते। मीडिया में तो यही बताया गया है कि पीएम सर ने अपनी मेगा क्लास में परीक्षा में बैठने के गुर बच्चों को बतलाए। उन्हें टाइम मैनेजमेंट से लेकर आने वाली हर चुनौती के लिए तैयार करने को प्रेरित किया। मोदी सर ने बताया कि हमें किसी भी प्रेशर को झेलने के लिए खुद को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए। दबाव को हमें अपने मन की स्थिति से जीतना जरूरी है। हालांकि इस सीख में कुछ भी नयापन नहीं है। 

गीता के उपदेश से लेकर जीत आपकी जैसी मोटिवेशनल यानी (तथाकथित) प्रेरणादायी किताबों में ऐसी ही बातें लिखी रहती हैं। इन्हें किसी भी किताब की दुकान से खरीदकर बच्चे पढ़ सकते हैं। अगर प्रधानमंत्री लाखों रुपए खर्च करके कोई चर्चा कर रहे हैं, और उसका दो कौड़ी का लाभ न मिले, तो फिर ऐसी परीक्षा पर चर्चा का क्या प्रयोजन। परीक्षा का दबाव झेलने के लिए खुद को सामर्थ्यवान बनाने की सीख देने भर से बच्चे जीवन के तनाव को झेलने के लिए तैयार नहीं हो जाएंगे। 

उसके लिए उन्हें सकारात्मक माहौल भी बना कर देना पड़ेगा। मगर इस वक्त देश के आम आदमी के हिस्से में निराशा का अंधेरा ही भरा हुआ है। इस अंधेरे को दूर करने के लिए जब कोई उपाय नहीं सूझता तो वह भगवान की शरण में जाता है और यहीं भाजपा लाभ लेने पहुंच जाती है। अयोध्या में अगर रोजाना दर्शन के लिए लाखों लोग पहुंच रहे हैं, तो वे महज भक्ति भाव से उमड़ रहे हैं, या उन्हें अपने जीवन की बेहतरी के लिए भगवान का ही सहारा है, इस बात का ईमानदार विश्लेषण और सर्वेक्षण किया जाए, तो शायद कोई नए तथ्य सामने आएं। बहरहाल, प्रधानमंत्री परीक्षा पर चर्चा में उपदेश देने की जगह अगर परीक्षा के दबाव को कम करने की स्थितियां निर्मित करने में अपनी ऊर्जा लगाएं, तो इस देश के करोड़ों बच्चों का जीवन संवर जाएगा। 

हर साल जेईई की परीक्षा में 12-15 लाख बच्चे औसतन बैठते हैं और इनमें से केवल 50-60 हजार बच्चों के लिए ही स्थान रहता है। कमोबेश यही हाल नीट और बाकी परीक्षाओं का है। अगर मंदिर या दिखावे के बाकी निर्माण कार्यों पर लगने वाली लागत का मामूली हिस्सा भी उच्च शिक्षण संस्थाओं को खोलने के लिए लगाया जाए, तो फिर बच्चों को सामर्थ्यवान बनने के उपदेश देने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जितने ज्यादा स्कूल-कॉलेज, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज, विश्वविद्यालय खुलेंगे, उतने अधिक बच्चों को पढ़ने के मौके मिलेंगे। फिर उन्हें उम्र से पहले ही गलाकाट स्पर्द्धा का शिकार नहीं होना पड़ेगा, इससे आरक्षण जैसे मुद्दों पर होने वाला तनाव भी कम होगा, साथ ही उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने की होड़ भी कम होगी।

 शिक्षण संस्थाओं में थोड़ा सा निवेश, ढेर सारा मुनाफा देश को देगा, यह सीधा सा गणित सरकार शायद समझना ही नहीं चाहती। और इस वक्त बहुलतावाद का शिकार समाज भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। बल्कि समाज नफरत और हिंसा की भाषा सुनते-सुनते काफी हद तक संवेदनहीन भी हो चुका है। इस आलेख में सबसे पहले अंग्रेजी में जो पंक्तियां लिखी गईं, दरअसल वही निहारिका का सुसाइड नोट है। यह नोट सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने बच्चों के भविष्य की चिंता जतलाते हुए पोस्ट किया। 

परिपक्व और संवेदनशील समाज ऐसी बातों को पढ़कर भीतर तक हिल जाता है, लेकिन यह देखकर हैरानी हुई कि इस नोट में लोगों ने अंग्रेजी व्याकरण की गलतियां निकालते हुए उसका मजाक बनाना शुरु कर दिया। ऐसी अंग्रेजी लिखकर तो कभी इंजीनियर नहीं बन सकती थी, ऐसी टिप्पणियां की जाने लगीं। हालांकि इसमें हैरान नहीं होना चाहिए था, क्योंकि ये बातें उसी चुटकुले की तरह हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में सुनाई थी कि एक लड़की ने आत्महत्या करने से पहले चिऋी लिखी, तो उसके प्रोफेसर पिता ने उसमें स्पेलिंग की गलतियां निकाल लीं। 

श्री मोदी के इस चुटकुले पर कार्यक्रम में उपस्थित नेता, ग्लैमरस पत्रकार और अधिकारी ठहाका मारकर हंसे थे। जब गंभीर मुद्दों को हंसी-खेल की बात बनाते हुए ही देश को चलाया जा रहा हो, वहां क्या उम्मीद रखी जाए। आत्महत्या तो जनवरी 2016 में रोहित वेमुला ने भी की थी और उनका सुसाइड नोट या आखिरी खत अंग्रेजी में था। जिसमें उन्होंने लिखा था कि-मुझे विज्ञान से प्यार था, सितारों से, प्रकृति से, लेकिन मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वो कब के प्रकृति को तलाक दे चुके हैं। हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं। हमारा प्रेम बनावटी है। हमारी मान्यताएं झूठी हैं। ज्.एक आदमी की कीमत उसकी तात्कालिक पहचान और नजदीकी संभावना तक सीमित कर दी गई है। एक वोट तक। आदमी एक आंकड़ा बन कर रह गया है। 

एक वस्तु मात्र। कभी भी एक आदमी को उसके दिमाग से नहीं आंका गया मेरे लिए आंसू न बहाए जाएं। आप जान जाएं कि मैं मर कर खुश हूं जीने से अधिक। सोचने की बात है कि कितना विवश महसूस करता होगा कोई, जब वह जीने से अधिक मरने में खुशी महसूस करे। रोहित वेमुला के इस आखिरी खत में ऐसी कई झकझोरने वाली बातें लिखी हैं। उन्होंने लिखा था कि वे कार्ल सगान की तरह विज्ञान लेखक बनना चाहते थे, लेकिन लिख पाए तो केवल आत्महत्या से पहले का यह खत। 

अंग्रेजी के सही व्याकरण और उम्दा अभिव्यक्ति में लिखे इस खत और चार पंक्तियों में गलत अंग्रेजी में लिखे आत्महत्या के नोट में आखिर क्या अंतर है। दोनों ही सम्मानजनक जीवन और उम्मीदों की अर्थी निकालने का ऐलान कर रहे हैं। समाज को सुना रहे हैं-राम नाम सत्य है, सबकी यही गत है।