कुछ तो बदल रहा है

तुम जानते हो न

बस इतना ही गणित आता है मुझे

कि उंगलियों तक गिन सकूं

कोई भी संख्या,

उंगलियों से बाहर का

सब अनगिनत ही है मेरे लिए ,,,

कैसे बीतते हैं ये 

बेचैनियत भरे दिन,, इंतज़ार की लंबी रातें

शायद इनका तो कोई हिसाब भी नहीं,,,,

तुम्हारा गणित तो अच्छा है न,

फिर क्यों अनसुना कर जाते हो हर बार मेरी कोई भी आवाज़,,

या कोई सा भी 'चुप',,,

कहीं तो कुछ ऐसा है

जो बदल रहा है हम-दोनों में 

हम से ही अनभिज्ञ,,हम से ही अज्ञात,, चुपचाप,,,,,

अब तो लगता है

हमारे "लिखे" के भी कोई अर्थ नहीं रह गये हैं ,,

सुनों

इंतज़ार की सब घड़ियां 

कब की उंगलियों से बाहर आ चुकीं हैं ,

आखिर इन अनगिनत क्षणों से 

कब तक माथापच्ची करूंगी मैं,,कब तक !!

नमिता गुप्ता "मनसी"

मेरठ, उत्तर प्रदेश