रेवड़ियां और रेवड़ियाँ

मुफ्त दिए जाने वाले आश्वासनों को सुनकर मुझे भी लगता है कि अगर मेरा कर्नाटक में वोट रहता तो कितना अच्छा होता।

क्या लगता है तुम्हें वे सारे आश्वासन अमल में लाए जाएंगे? मतदाताओं को मतदान केंद्र तक  पहुंचाने के लिए ही यह सारा तामझाम । पिछले चुनाव में जनता ने किसे वोट दिया था? किसने सत्ता हथियाई है? भूल गया क्या?

चुनाव होने के बाद किए गए खर्च का हजार गुना कमाने के लिए चालीस प्रतिशत  कमीशन लेने में ही सारा समय जा रहा है नेताओं का।ए? अब जनता के लिए और मुफ्त दिए जाने वाले रेवड़ियों के लिए सोचने के लिए समय ही कहां?

सही पकड़े हो! यही तो परिपक्वता है।  वास्तव में बहुत सारे मतदाता इन मुफ्ती रेवड़ियों पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। उनकी सोच यह है कि वोट देने पर उन्हें कितने पैसे मिले? 

तुम्हारा ऑब्जरवेशन गजब का है।  गरीब कमजोर वर्गों के लिए, महिलाओं को हर महीने 2000 का पेंशन, मुफ्त यात्राएं, मुफ्त के दूध और सिलेंडर यह सब तो मध्यमवर्गीय को मिलेगा नहीं।  रही बात धनिक वर्ग की वह भी चुनाव पर ध्यान नहीं देते। शायद इसलिए सप्ताह के अंत में या सप्ताह की शुरुआत में चुनाव न रखकर कर्नाटक में बुधवार को चुनाव रखा गया ताकि लोग छुट्टियों में न भागें और मतदान केंद्र तक पहुंचें। बेंगलुरु जैसे महानगर में आधे मतदाता चुनाव में भाग ही नहीं लेते।

ठीक कहा भैया आपने। अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि कोई भी पार्टी सत्ता में आए तो क्या फर्क पड़ता है।  जैसे पत्थर कोई भी हो दांत तुड़वाने में कोई फर्क नहीं पड़ता।

परिणाम के बाद सारी पार्टियां अपने अपने जीते हुए सीटों के आधार पर सत्ता को बंदरबांट सा बांट लेती हैं। वह किस तरह हो यह तो ब्रह्मा भी नहीं बता सकते। महाराष्ट्र हो सकता है मध्य प्रदेश या बिहार हो सबकी अपनी अपनी बंदरबांट है या फिर नागालैंड की पद्धति भी पर्दे पर आ सकती है या फिर कोई नया शगुफा हो सकता है।

मतलब यह है कि वे आपस में सारा कुछ बाँट लेंगे चोर चोर मौसेरे भाई की तर्ज़ पर और जनता टापती रहेगी सूखे आश्वासनों कि हवा खाकर।

बस वैसा ही है भैया। मिली जुली सरकार के आने पर मुफ्त की रेवड़ियां कौन सी पार्टी दे? आश्वासन पर कौन अमल करे? इस पर स्पष्टीकरण आते आते तीन साल बीत जाते हैं। शुरुआत में आडंबर पूर्ण  एक या दो  वादे अमल में लाए भी तो पार्टी के कार्यकर्ताओं और सहानुभूति रखने वालों के हिस्से में आ जाती हैं। पदों की बांट में अगर ऊंच-नीच हुआ या कोई और कारण हो तो सत्ता पक्ष में बहुत सारी   आंख-मिचौनी हो सकती है। कुछ दिनों बाद कोई दूसरा गठन सरकार बना सकता है या कुछ और भी हो सकता है।

कुछ भी हो किसी भी तरह से पाँच साल चला चला लेते हैं जहां तक संभव हो मध्यावधि पर नहीं जाते। सभी का एक ही लक्ष्य है कुर्सी या सत्ता क्योंकि उसी के आधार पर कमाई जो की जानी है।

हां हां यह सब देखते हुए मुझे लगता है कि आप चालीस प्रतिशत कमीशन की बजाए साठ प्रतिशत या अस्सी प्रतिशत भी हो सकता है।

इन सारी हिंसाओं, इन सारी अराजकताओं के पीछे मतदाता ही हैं।

वह कैसे?

अगर मतदाता बिना किसी लालच में आए ईमानदार और आदर्शवान नेताओं को चुने तो लोकतंत्र को इतनी सारी गोलियां क्यों लगेंगी? ज़रूरी है पहले मतदाताओं की सोच में बदलाव हो तभी नेताओं में परिवर्तन हो सकता है। मुफ्त की रेवड़ियां और वोट के लिए नोट की लालच से बचे बिना अछे के भलाई की संभावना नहीं है। लेकिन ऐसा कब होगा?  


डॉ0 टी0 महादेव राव

विशाखपटनम (आंध्र प्रदेश)