मुब्दता-ए-इश्क़

मुब्तदा ए इश्क़ का पता तब चलता है,

जब आबशार बन वो आँखों से बरसता है।


फ़रावानी उलफ़त की न पूछो यारों,

इश्क़ के बराह पुरज़ोर नशा चढ़ता है।


न सुकूँ न फ़लाह न परवाह तबसिरे की,

मुन्तज़िर क़ल्ब दीदार को तरसता है।


आसूदगी बस मिलती महबूब की पनाहों में,

शब-ओ-रोज़ बस उनका ख़याल रहता है।


फ़लक के चाँद सितारे पास हैं लगने लगते,

ख़िज़्र ए राह बन जब महबूब साथ चलता है।


डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)