जो पढ़ लेते तुम मेरे मौन को,
नई नवेली इक भाषा होती।
छंद,अलंकार,बह्र,मापनी से परे,
मूक प्रेम की परिभाषा होती।
छू आती मैं अनंत व्योम को,
मन में न कोई निराशा होती।
जग हार के तुझे जीत लेती,
और न कोई अभिलाषा होती।
मैं कली तू होता एक मधुप स्वच्छंद,
तुझसे ही खिलने की आशा होती।
जकड़ लेती निज पंखुड़ियों में तुझको,
तेरा गुंजन ही मेरी विभाषा होती।
डॉ. रीमा सिन्हा
(लखनऊ )