लहलहाते हुए खेतों से
चहचहाते हुए खलिहानों से
देहरी तक आते आते
रास्तों के पगडंडी पर
गरदा में कई बार बिखर जाती हूं ।
आते जाते लोगों के पैरों तले
रौंदती चली जाती हूं...,
ऐसे बिखर जाती हूं...,
जैसे कोरे कागज़ पर
अर्थ विहीन अल्फ़ाज़...!
मैं जीवन अमृत अनाज ।
कैसे करूं स्वयं पर नाज ।।
देहरी के बाद...,
कोठरी में बरांडे पर बनी
बांस को चीर चीरकर बनी
ऊपर से गोबर मिट्टी की
लेप लगा हुआ...,
कुआं नुमा बुखारी ( भखारी ) में
क़ैद कर दिया जाता है...,
जहां भीतर ही भीतर गूंजती है
अपनी ही खनक...,
अपनी ही आवाज़ !
मैं जीवन अमृत अनाज ।
कैसे करूं स्वयं पर नाज ।।
बुखारी के नीचे एक पंजा के
बराबर छेद किया जाता है
धीरे-धीरे आहिस्ता आहिस्ता
इन्हीं छेदों से निकाला जाता है
कच्ची शेर... पक्की शेर...
बाट बटखारा में
बांट दिया जाता है
डंडी तराजू पर
लटका दिया जाता है
घर आंगन देहरी पर
इधर-उधर न जाने किधर
सभी के पैरों तले की धूल
बुझती है सभी के पेट के आग...!
मैं जीवन अमृत अनाज ।
कैसे करूं स्वयं पर नाज ।।
अब तो हवा के झोका सा
अदृश्य होना चाहती हूं
अथाह शांत सागर सा
मौन रहना चाहती हूं
सुनकर भी अनसुना
करना चाहती हूं
देखकर भी अनदेखा
करना चाहती हूं
छोटे-छोटे सोने के
टुकड़े में बन मूर्ति बनकर
सांसे लेना चाहती हूं ।
और इस मानवीय युग में
अमानवीय नाटक...
छल... कपट...
देखना चाहती हूं आज...!
मैं जीवन अमृत अनाज ।
कैसे करूं स्वयं पर नाज ।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
नारायण गांव,
नई दिल्ली 110028
manoj22shah@gmail.com