यह कैसी पीड़ा

मेरा प्यारा पोता! कैसा है रे तू? मुझे बड़ी जमकर भूख लगी है। तेरी माँ से पूछकर कुछ खाने को देना – घर के आंगन में खड़ी दादी ने पोते के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। पोता घर के भीतर जाकर माँ से दादी के लिए खाना परोसने की चिरौरी करने लगा। माँ ने खाना देने के बजाय उसे दो तमाचे लगा दिए। कहा – चला है बड़ा दादी का नौकर बनने! बित्ते भर का हुआ नहीं कि मुझ पर हुकुम चला रहा है। 

वैसे भी गलती तेरी नहीं, मेरी सास की है जो आए दिन हमारे घर-संसार में आग लगाने आ जाती है। इतनी उमर हो गई है फिर मर क्यों नहीं जाती। दुनिया भर के लोगों को मौत आती है। बस इन्हें नहीं आती। मरे तो पिंड छुड़ाऊँ। लड़के के रोने की आवाज सुन पिता बाहर आ गए। देखते ही पूरा माजरा समझ गए।

घर के बाहर आंगन में आकर माँ से कहने लगे - माँ! अब तेरे कलेजे को ठंडक मिली अपने पोते को मार खिलाकर। तू तो हमारे जान की आफत बन गई है। एक पल चैन से रहने नहीं देती। अच्छे खासे घर में आग लगाने आ जाती है। तू सठिया गई है। लाख समझाऊँ लेकिन समझने का नाम नहीं लेती। तुझे कितनी बार याद दिलाऊँ कि संपत्ति के साथ-साथ तेरा बंटवारा भी हो गया है। 

सोमवार से गुरुवार तक तू भैया की और शुक्रवार से रविवार तक मेरी जिम्मेदारी है। आज मंगलवार है। फिर तू यहाँ क्यों चली आई? बेटे की बात सुन माँ ने धीमे से कहा – जानती हूँ बेटा मेरा बंटवारा हो गया है। गाय-गोरु के साथ मुझे भी बांट दिया गया है। मुझसे तो ज्यादा नसीब वाले गाय-गोरु हैं जिन्हें समय से खाने को तो मिल जाता है। इस बुढ़ापे में तुम लोगों की सुईं सी चुभती बातें सुनने का शौक थोड़े न है। बेटा! तेरा भैया अपने परिवार के साथ कहीं बाहर गया है। मैं कल से भूखी हूँ। बड़ी कमजोरी सी लग रही है। 

चक्कर भी आ रहा है। अगर कुछ हो गया तो दुनिया के लोग क्या कहेंगे कि दो-दो जवान बेटों के रहते माँ की क्या हालत हो गई। दूसरों के घर जाकर मांग भी नहीं सकती। वे देने को तो कुछ न कुछ दे देंगे, लेकिन मेरे बच्चों के बारे में लाख भला-बुरा कहेंगे। मैं सब कुछ सह सकती हूँ लेकिन तुम लोगों को कोई कुछ कह दे, मैं कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ। पैर पड़ती हूँ। कुछ खाने को है तो दे दे। तेरा बड़ा उपकार होगा।

बेटे ने देखा कि पत्नी नाक-भौं सिकुड़ रही है। उसने कहा - माँ! अभी-अभी हम खाकर उठे हैं। घर में खाना नहीं है। तू रात को आ जाना तब कुछ इंतजाम करते हैं। इतना सुनते ही पोता अचानक से बीच में बोल पड़ा – पिता जी! माँ ने थोड़ा चावल और दाल उठाकर रखा है। वही दे दो न! पोते की बात सुन दादी वहाँ से जाने लगी। पोते ने दौड़कर दादी का हाथ पकड़ लिया। 

मासूमियत भरे करुण स्वर में कहने लगा – दादी चलो न! कुछ खालो न! दादी ने पोते को गले लगाते हुए कहा – बेटा! मैं तुझसे बड़ी हूँ। मैं भूखी रह सकती हूँ, लेकिन तू नहीं रह सकता। वह जो खाना बचा है उसे तेरी माँ ने तेरे लिए उठाकर रखा है। तेरे इतना कहने भर से कि दादी खा लो - मेरा पेट भर गया। इतना कहते हुए माँ वहाँ से चली गई। यह दृश्य देखकर ऐसा लगा मानो माँ की महत्ता बताने वाली सारी किताबें धूँ-धूँ कर जल रही हों।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657