झिलमिल दीप जलें तारों सम
तिमिर नदी के पतवारों हम
दीप लिए घटवार बनूं मैं
लहर भँवर की चिंता कैसी?
आना दीवाली में अबकी
हुलस हुलस कर देह जलाऊं
शलभ जलूं तो तुमको पाऊं
दीपशिखा सम उज्ज्वल मन हो
अमानिशां की रात ढली सी।
आना दीवाली में अबकी।
अगर जलाओ नन्ही काठी
प्राण जला दें हम सब साथी
तन दीपक बन दहक उठेगा
अभिलाषा सुनकर मधुकर की।
आना दीवाली में अबकी।
यह मेरी यौवन की ज्वाला
पी जाओ तुम मानो हाला
रसना भी जलने दो थोड़ी
भूलोगे सब स्वाद जहर की।
आना दीवाली में अबकी।
दीपों का त्योहार बुलाता
मीत अभी इस पार बुलाता
नहीं मनाई हम ने कब से
आंख मिलन की लौ को तरसी।
आना दीवाली में अबकी।
संग तुम्हारे दीप जलाकर
देखूं आंखों में कुसुमाकर
जोत जला दूं उन में अपनी
रातें कर लूं फिर जगमग सी।
आना दीवाली में अबकी।
मधुकर वनमाली
मुजफ्फरपुर बिहार
स्वरचित एवं मौलिक
मो 7903958085