हरिया या सूखिया

गरीबी में केवल आटा ही गीला नहीं होता, बल्कि नाम भी एक जैसे होते हैं। ‘‘ इसका-उसका-सबका नाम भी हरिया!! पूरे गांव ने एक ही नाम रख लिया है क्या!? कोई यह हरिया, कोई वह हरिया, कोई हर हर हरिया! हरिया केवल नाम से हरिया है, बल्कि वह तो केवल सूखिया है। ये लोग आदमी हैं या आरटीओ के नंबर!

“सही-सही बताओ तुम्हारा नाम क्या है ?’’ कोआपरेटिव सोसायटी में धान खरीदी के तमाम रजिस्टरों के बीच फंसे साहब बोले।

‘‘ सुखहरिया लिख लो साहेब।’’

‘‘ सुखहरिया, .... और ये क्या !! पचास बोरी धान लाए हो!?  चाचा ये कोआपरेटिव सोसायटी है बनिए की दुकान नहीं कि इत्ता-उत्ता जित्ता भी हो बटोर लाए।’’

‘‘जित्ता था सब लाया हूं मालिक। बढ़िया किसम का धान है। एक बार देख लेते ....’’

‘‘ देखेंगे क्यों नहीं! देखना तो पडै़गा ही। ऐसेई थोड़ी लै लेगी सरकार। बड़ी सख्त ड्यूटी है महाराज। सरकार मेहनत और ईमानदारी से काम करने का पैसा देती है, कोई मजाक नहीं है! इत्ती गरमी में यहां बैठे हम पसीना हेड़ रए हें तो किसके लिए?  सरकार की सेवा के लिए ..... और धान क्यों नहीं लाए? ’’

‘‘ इत्तई पैदा हुआ साहेब। सारा लै आए हैं। जमीन कम है। हम छोटे किसान हैं।’’

‘‘अरे महाराज ! कित्ते जनम तक छोटे किसान बने पैदा होते रहोगे ! कुछ पुन्न-उन्न किए होते तो तुम बड़े किसान के घर में पैदा होते और औलादें भी बड़े किसान की कहातीं। सारी गलती तुम्हारी है। हम तिवारी हैं, ....... सब्जी-भाजी पैदा करते हो ? आलू-भिंडी कुछ?’’

‘‘आप गेहूं देख लेते ..... एक-एक दाना चमकदार है। ’’ किसान ने ना में सिर हिलाते हुए गुजारिश  की ।

‘‘ चमकदार होने से क्या होता है !? पीसने से बनेगा इडली-डोसा ही, बिजली तो बनेगी नहीं ! एं ?  ………  भैंस पाली होगी? घी-वी होता है?’’

‘‘ अच्छी क्वालिटी का चावल है साहेब, देख तो लेते ।’’ किसान ने फिर रुँआसी स्वर में कहा।

‘‘ तो नमूना लाओ ना .... अब मैं जाऊँगा क्या तुम्हारे ट्रेक्टर  के पास, ..... सरकारी आदमी ऊपर से तिवारी?’’

किसान नमूना ले कर हाजिर होता है, साहब बोले-‘‘हूं ....चावल तो अच्छा है! पहले बताना था ना।’’

‘‘ कह तो रहे थे कि देख लेते एक बार।’’

‘‘ ठीक है चच्चा, ऐसे तो सब कहते रहते हैं। .... पचास बोरे हैं ना?’’

‘‘ हां पूरे पचास हैं। ’’

‘‘ देखो एक आदमी साथ कर देते हैं। दस बोरी मेरे यहां पटका दो, पंद्रह-पंद्रह हमारे बड़े साहबों के यहां और दस बैंक वाले साहब के यहाँ।’’

‘‘ पैसे कौन देगा !?’’ किसान चिंतित हो गया।

‘‘ पैसा !! ....... तुमको सरकार पर भरोसा नहीं है तो आए क्यों यहां?’’

‘‘ हम तो इसलिए बोले साहब कि अनाज तो सरकारी गोदाम में जाता है!’’

‘‘ तो हम क्या सरकारी आदमी नहीं हैं !? ....... सरकार के गोदाम कोई एक जगह होते हैं !……  अब यहां तुम्हारे लिए एक लिस्ट टंगवाए क्या, कि ये-ये बंगले सरकारी गोदाम हैं। .... सुबह-शाम कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हो क्या ?’’ साहब ने घूरते हुए पूछा।

‘‘ गलती हो गई साहब ..... हम समझे सरकारी गोदाम एक ही होता है। ..... तो पैसा आप लोग ही देंगे ना दस-दस बोरी का?’’ किसान की शंका अभी भी बनी हुई थी।

‘‘ अरे यार !! …… कहाँ से आ गए तुम !! ……  महाराज सरकारी गोदाम अलग अलग होते हैं पर सरकारी जेब एक ही होती है। पैसा यहीं से मिलेगा तुमको । ’’

‘‘ ठीक है साहेब, हमें क्या करना है, .... पैसा चाहिए बस ।’’

‘‘ साइन करोगे या अंगूठा लगाओगे ?’’

‘‘ दसखत करेंगे साहब, पुराने जमाने की चोथी पास हैं।’’ किसान थोड़ा तन कर बोला।

‘‘ चैथी पास !! अरे वाह .... चलो ठीक है, दस्तखत करो यहां .... यहां ...’’

‘‘ ये क्या साहब !! आपने तो 500 बोरी लिख दिया ! हम तो 50  ही लाए हैं !’’

‘‘ 500  लिखा है तो क्या 500  का पैसा लोगे !! बड़े भ्रष्ट हो तुम तो ! भगवान से तो डरो जरा !’’

‘‘ राम राम, हम कहां पाँच सौ का पैसा मांग रहे हैं!! …।   इतनी अंधेर कहीं मची है ! भगवान सब देख रहा है। ’’

‘‘ तो भगवान को देखने दो ना। तुम इधर-उधर क्यों देख रहे हो। तुमको ईमानदारी से पचास बोरी के पैसे मिलेंगे। इसमें कोई दिक्कत है क्या ?’’

‘‘ पचास के मिल जाएं यही बहुत है, समझो गंगा नहा लिए साहब। ’’

‘‘ तो फिर आंख मींच के साइन करो फटाफट और गंगा नहाओ।’’         

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657