कागज़ सा माद्दा

कल मेरे आत्मा के कमरे में कोई अनजान घुस आया। जबरन मेरी खटिया खड़ी कर बिस्तर गोल करने लगा। मैं आस-पड़ोस के लोगों से बचाने के लिए गुहार लगा रहा था। फिर समझ आया पड़ोसी तो बिन बुलाए तमाशा देखने आते हैं। मैं तो फिर भी सहायता माँग रहा हूँ। जिन लोगों में तमाशा देखने की आदत पड़ जाती है, उनमें बचाने का पुरुषत्व नपुंसकता में बदल जाती है। मेरी गुहारें दम तोड़ चुकी थीं। 

मेरी गुहारों से फेरीवाले वाला बेहतर प्रतीत हो रहा था। फेरीवाले के फेर में पड़ने वाले मेरी गुहार में हार का भागीदार नहीं बनना चाहते थे। सब समय के फेर का चक्कर है। मेरे अकेलेपन की बोली लगाई जा रही थी और मैं कसाई के हाथों बिकाऊ बकरी की तरह मिमिया रहा था। मैंने अपनी स्वच्छंदता का गला तानाशाह के हाथों दबाने के लिए दे रखा था।

चुनने वाले जब चुने हुए लोगों के हाथों अपने ही किए पर चुनवा दिए जाते हैं, तब दोष चुनाव करवाने वाले का कतई नहीं होता। जब ओजस्वी वाणी के वीणा वाले तार अपनों के हाथों टूट जाएँ तो उन तारों के बने फंदे में झूलने से हिचकना नहीं चाहिए। यही तुम्हारी नियति है। 

अपने ही हाथों आँखें फोड़ने वाले गैर आँखों की चालबाज़ी पर सवाल नहीं किया करते। गैर की बातों में आकर बैर करने वाले किसी की खैर नहीं मनाते। खैर खैरात में नहीं मिलता। हिंदू के मंदिर और मुस्लिम के मस्जिद जब वोट बैंक बन जाएँ तो उनमें इबादत की जगह कवायद बसती है। इन कवायदों में पड़ने वाले अपने कौम के नाम पर दूसरों को कोमा में भेजने के मौके तलाशते रहते हैं।

जब तुम्हारी नैतिक बातें दोगली हों तो वे दीवारों पर गोबर की उपली से भी गयी गुजरी होती हैं। बोलने वालों के शहरों में गूँगों की भीड़ ठीक उसी तरह होती है जिस तरह गंजों के शहर में कंघी बेचने वाले। कमाल तो यह है कि बेमतलब की बातों से मतलब की बातें दबा दी जाती हैं।

 जिंदगी मतलबी और मौत बेइमानी लगती है। न्याय के चक्कर में कचहरी में कचरा और कोर्ट में मिस्टर लेट हो जाते हैं। मिस्टर लेट होने से अच्छा है चार लोगों को जागरूक करने वाला मिस्टर पेंप्लेट  ही बन जाओ। आजकल तो कागज़ के टुकड़े जीते-जागतों से अधिक माद्दा रखते हैं। काश कागज़ सा माद्दा हम सबमें होता।    

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657