हे वर्षा की बूंदो,
तुम हो सब एक समान।
पर क्या कर्म हिसाब से,
धरा पर मिलता तुम्हें भी मान ।
पौधों पर गिरकर ओस बनती हो,
मार्तण्डाचि संग जीवन को खोती हो।
सीप में बरसों तपकर ,
नवजीवन में मोती बनती हो ।
भुजंग मुख में जाकर तुम
मृत्यु का गरल बनती हो ।
सरिता में गिरकर के तुम,
तृषितों की तृषा तृप्त करती हो।
विशाल सिंधु को पाकर भी,
सबको अतृप्त ही रखती हो।
कभी क्षेत्रों में बरसकर,
फसलों को जीवन दे जाती हो।
कभी पंक में गिरकर तुम,
स्वयं पंक बन जाती हो ।
समाहित होकर भागीरथी में,
निर्मल ,पवित्र हो जाती हो ।
तुम भी तो धरा पर,
भाग्य अलग -अलग पाती हो ।
धरा पर आकर के तुम भी,
कर्मानुसार मान पाती हो।
गरिमा राकेश गौतम 'गर्विता'
कोटा,राजस्थान