"दास..."

अनकही आस 

खोता हुआ विश्वास

बनकर दूसरों का दास 

बुझता हुआ..., 

मानव पुंज प्रकाश...!

और..., फिर...,, 

इंसान मुक्ति चाहता है 

लड़ता है..., झगड़ता है 

मशवरा चाहता है... 

फैसला चाहता है...!

जगत को प्रभावित करता है 

जगत को उद्वेलित करता है 

शांति की बीज को 

उगने नहीं देता..., 

क्रांति की ध्वनि 

बिखरता चला जाता है...!

परंतु..., 

उन्हें खुद मालूम नहीं 

अपना ही तृष्णा

अपना ही इच्छाएं

बना रखा है उन्हें दास

बुझता हुआ..., 

मानव पुंज प्रकाश...!!

क़ैद है स्त्री की आज़ादी 

घर के चारदीवारी में...

सामने वाले को कुचलकर 

आदमी आगे बढ़ने की तैयारी में

डटे हैं देश के सिपाही 

चौतरफा सिमाना पर

चंद दहशतगर्द खड़े हैं 

राहों पर रोड़ा बनकर

बातें सभ्य और सभ्यता की

बस कहते हैं..., 

फर्ज औपचारिकता की

चाह कर भी मुक्त नहीं 

हो पा रहा है इन जंजीरों से

मानव..., मन...! 

मस्तिष्क..., सांस...!

बुझता हुआ..., 

मानव पुंज प्रकाश...!!


स्वरचित एवं मौलिक

मनोज शाह मानस

नारायण गांव,

नई दिल्ली 110028

manoj22shah@gmail.com