मिशन वोट हड़पना

चार विधायक चुनाव जीतने के बाद गप्प हांक रहे थे। कायदे से इस समय इन्हें जनता की सेवा में होना चाहिए था,  पर आदत से मजबूर ये खिलखिलाते हुए जनता के मुद्दों पर चुटकी ले रहे थे। तभी इन्होंने तय किया कि यह मज़ा समाचार पत्रों अथवा टी.वी. चैनलों से चिपककर लेने से अच्छा है सीधे जनता में घुसकर उनकी हालातों पर दिखावटी आँसू बहाकर लें। एक विधायक जो इस तरह की गतिविधियों के कारण काफ़ी वरिष्ठ हो गए थे, बोले, ‘इसमें क्या है, इस तरह का ढोंग करने में हम पहुँचे हुए हैं’ चार विधायकों में तीन ढीठ थे और एक सोलह सिंगार करने वाली.विधायिका भी थी। उन्होंने घोषणा की कि जैसे ही चुनावों के दिन सिर पर आयेंगे तब गरीबों की झोपड़ियों में घुसकर उनकी चुटकी लेंगे।

आखिरकार चुनाव के दिन आ ही गए। चारों विधायक जीप पर जनादेश की भांति लदे हुए थे। जीप लोकतंत्र की तरह किसी गांव की ओर भागी जा रही थी। ‘मिशन वोट हड़पना’ जोर शोर से शुरु किया गया। गरीबों के गुलगुले वोट कहीं दूसरे न हड़प लें इससे पहले उन्हें रोटी का टुकड़े दिखाकर चूहों की माफिक चूहेदानी में पकड़ना जरूरी हो गया था। जीप गांव में दाखिल हुई। जानवर चराने वाले चरवाहे लड़के, खेतों से आती औरतें और खैनी ठोकते फालतू बूढ़े आकर्षित हुए। कुछ उत्साहित लड़कों ने जीप में लटकने की फुर्ती दिखा ही दी। सीनियर विधायक दहाड़े, ‘अबे हट! गधे को तनिक भी तमीज़ नहीं. उठिबो चलिबो बोलिबो लिहिन विधाता छीन। जीप में खरोंच लग गई तो पैसा कौन भरेगा, तेरा बाप। 

अहा, लोक साहित्य में सच कहा गया है... इनसे बातें तब करो जब हाथ में डंडा होय। हट नहीं तो दूंगा लात।’ लड़के जीप छोड़कर पीछे पीछे चल रहे थे। सीनियर विधायक की गालियाँ टेलिप्रांप्टर सी लग रही थीं, जिसे शेष विधायक देखकर पुनः दोहराने की पूरी सुविधा थी। वे रहस्यवादी ढंग से खीसें प्रसारित कर रहे थे। जीप धूल और गालियां उड़ाती गरीबों की झोपड़ियों के पास आकर रुकी। स्वागत में कुछ लोग खड़े थे। चारपाइयाँ बिछी थीं। दो बाल्टियों में पानी था। एकदम शुद्ध। मीडिया के सामने सूखी रोटी और उनके पीठ पीछे शुद्ध देसी घी वाले पराठे तैयार थे।

विधायक शिकारियों की तरह जीप से उतरे। विधायक गण घर के भीतर चले गए। वे निरीह खड़े गरीबों को देख मुग्ध होने लगे। एक विधायक अपनी खादी पर बार बार हाथ फेर रहे थे। चौकड़ी चारपाई पर यथा संभव बैठ गए। कन्धे पर अंगौछा डाले एक अर्द्ध आधुनिक युवक तेजी से करीब आया। पूछा, ‘का लेंगे आप लोग. ठंडा या गरम.’ सीनियर विधायक बोले, ‘ठंडा यानी.’ युवक अदा के साथ ठठ्ठाया, ‘ठंडा मतलब कोका कोला. अरे अंकल, हियां सब मिलेगा.’ चकोड़ी यूटोपिया से बोले, ‘दही हो तो लस्सी बनवा लो... या नींबू का शिकंजी।

 ताजे नीबुओं की तो क्या खुशबू... और क्या स्वाद.’ युवक लहालेट हो गया, ‘क्या चौकड़ी जी। हियाँ दूधै नहीं बचता, सब सप्लाई हो जाता है और निम्बू से बढ़िया है इस्पिराइट। परधान के यहां जब अफसरान आवत हैं तौ इस्पिराइट पीवत हैं और फिरि चौकड़ी जी, बोतल क्यार मजै कुछ दूसर है।’ वाक्य पूरा करते-करते स्वाभाविक रूप से उसकी दूसरी आँख दब गई। चकौड़ी स्प्राइट से मान गए। युवक के जाते ही चौकड़ी कहने लगे, ‘देखा साले को. एक नम्बर का हरामी पीस है।

 गुरु हम लोग दिखावा ही सही दुःखी तो रहते हैं कि गांव वाले कष्ट में हैं। लेकिन यहाँ सब साले चकाचक हैं। भाड़ में जाएं इनके कष्ट। हम केवल वोट से मतलब रखने वाले। यह बात सुन महिला विधायक सीनियर  विधायक की प्रशंसा करने वाली ही थी कि दूसरा विधायक बीच में कूद पड़ा - ‘उनके झांसे में मत आना मैडम जी। सारी औरतों को बिटिया बिटिया करते रहते हैं, मगर मन में क्या है, भगवान जानें। आप को भी तो एक बार बिटिया कहा है।’ तब तक सीनियर विधायक ने कुछ दूर खड़े एक लड़के को इशारे से पास बुलाया। 

लड़का सहमा फिर आगे बढ़ा। सीनियर विधायक ने कहा, ‘एक लोटा पानी ला दो जरा धूल से भरा चेहरा ठीक कर लूं। ऐसी तैसी हो गई। तुम लोग यहाँ कैसे रहते हो यार।’ यार शब्द का प्रयोग आत्मीयता बढ़ाने के लिए किया गया था, जिसका उचित प्रभाव भी पड़ा। लड़का बोला, ‘अब्बै लावत है।’ सहसा दूसरा विधायक बीच में कूद पड़ा, ‘क्या लाएगा बे। अब ये बाहर से आए हैं, नहीं जानते, मगर तू तो जानता है अपनी जाति। सरऊ दिमाग खराब है। ये तेरे हाथ का पानी पिएंगे ठाकुर होकर। कभी तेरे बाप सूरती ने ऐसी हिम्मत की थी।’

दिव्य नाश्ते के बाद भव्य भोजन की व्यवस्था। भोजन में भोजन को छोड़कर केवल मधुपान की व्यवस्था थी। मधुपानोपरांत चौकड़ी एक-एक व्यक्ति को लेकर बैठ गए और उनसे कुछ नोट करने लगे। जैसे जाति गीत, श्रम गीत, संस्कार गीत आदि।

चौकड़ी ने समां बाँध दिया। शिकार पूरा हुआ। वे बोले, ‘ये गरीब तो फंस गए। झक मारकर वोट करेंगे। अब चलने की तैयारी की जाए। अब पाँच साल बाद आयेंगे। अब ज्यादा पगलैटी झाड़ने की जरूरत नहीं है, चलकर जीप में बैठो।’ जीप चली और गांव से बाहर आई। सहसा सामने एक बूढ़ा और बुढ़िया आ गए। उन्हें देख विधायक बुदबुदाए, ‘आ गए साले लतमरुए। ये दोनों अपने को जनतंत्र का बाप समझते हैं.... स्साले अथवा एक साला एक साली।’ सीनियर विधायक खिलखिलाया, ‘भूखे नंगे जनतंत्र के चिथड़ा लपेटे कीड़े-मकौड़े जैसे लोग।’

 डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार