एक समय था जब झूठ बोलने पर कौवा काटता था। हो न हो यह कौआ अवश्य महात्मा गांधी जी का होगा। वरना इंसान को काटने की हिम्मत किसमें है। वैसे पर्यावरण परिवर्तन के चलते महात्मा गांधी वाले कौए तो कब के लुप्त हो गए। अब जो बचे हैं वे झूठ बोलने पर नहीं सच बोलने पर काटते हैं। इसीलिए लोग सच बोलने से डरते हैं। सच बोलकर कौन मूर्ख बेमतलब का टिटिम्मा पालेगा। सच बोलकर दूसरों को दूर करने से अच्छा है झूठ बोलकर उनके गले काटना।
इस तरह गला काटने पर खून का रंग लाल हो न हो लेकिन स्वाद मीठा होता है। यदि ऐसा न होता तो आए दिन इतने गले कट रहे हैं, क्या वह बिना स्वार्थ वाले मीठे स्वाद का होता। आइंस्टीन ने महात्मा गांधी को हांड-मांस का चलता हुआ क्रांतिकारी महापुरुष बताया। उनकी बात मुझे तब सच लगी जब मैंने मुन्ना भाई एमबीबीएस और मुन्ना भाई लगे रहो में गांधीगिरी को देखा। गांधीगिरी के नाम पर टिकट खिड़कियों पर इतनी भीड़ उमड़ी कि एक बार के लिए लगा हो न हो गांधी जी फिर से वापस आ गए हैं। दो फिल्मों को छह घंटे देखकर छह सेकंड में गांधी जी को भुला देने वाली पब्लिक उनके सिद्धांतों को पुड़िया बनाकर पैरों तले कुचलने में आज की दुनियादारी समझती है।
क्या होता अगर सच में गांधी जी के सिद्धांतों पर यह देश काम करता? इसमें सोचने वाली बात क्या है। स्वतंत्रता 1947 में मिली। हम वहीं के वहीं रहते। वह तो शुक्र मनाओ कि गांधी जी 30 जनवरी 1948 को जबरन इस दुनिया से चल बसे। तभी तो हम उनकी याद में असत्य, अहिंसा, अधर्म, अन्याय का सफलतापूर्वक पालन करते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं। सच बोलने वाले, धर्म का पालन करने वाले, न्याय का पक्ष धरने वाले, अहिंसा की बातें करने वाले आदमखोर शेर से भी खतरनाक माने जाते हैं। इसीलिए इन्हें जेल में बंद कर दिया जाता है या फिर राष्ट्रविरोधी कहकर उन पर गद्दार का ठप्पा लगा दिया जाता है। अब तो हर जगह झूठ का बोलबाला है साहब। पैंतीस-चालीस रुपए में पेट्रोल देने के नाम पर सरकार बनाने वाले सौ रुपए में पेट्रोल बेचते हैं। कभी गैस सिलेंडर इतने महंगे थे कि एक महान संस्कृति की पक्षधर अम्मा संसद के सामने गलाफाड़ गृहिणी के रूप में सरकार को हिला देती थीं।
अब वही अम्मा हजार रुपए की कीमत को सस्ती गैस बताकर अपनी बेटी के होटल में गाय, सुअर के मांस का सांस्कृकि भोज्य पदार्थ बनवाती हैं। इस तरह संस्कृति का विकास करती हैं। अच्छा हुआ गांधी जी निरमा वाशिंग पाउडर के विज्ञापन से पहले चल बसे। वरना उनकी मौत पर यही वित्तीय अम्मा कहतीं – गांधी जी गोली लगने से नहीं मरे। बल्कि वे ही गोली के रास्ते में आ गए। इसमें गोली की कोई गलती नहीं है। उन्हें तो उसेन बोल्ट की तरह फुर्तीला होना चाहिए था। गोली के रास्ते में आने वाला मरेगा नहीं तो क्या साल्सा डैंस करेगा।
सच बोलने वालों को कौओं से नहीं मोटा भाई से डरना चाहिए। क्योंकि सच बोलने वाले मैके जाने के बजाए जेल जाते हैं। यह बात अलग है कि आगे चलकर जेल ही उनका मैका बन जाता है। यदि इतने पर भी सच बोलने वालों की चुल मची रहती है तो उनके पीछे ईडी, सीबीआई, टाडा, गद्दार, राष्ट्रविरोधी जैसे टैग लगाकर उन्हें मारेंगे नहीं मरने पर मजबूर कर देंगे। गांधी जी हमेशा एक गाल के बदले दूसरा गाल भी ऑफर करने के लिए कहते थे। काश आज वे होते तो उनके सिद्धांतों में और न जाने कितने ऑफरों के साथ पूरा का पूरा बदन सत्ता के हाथ में धर देते और कहते – यह बदन तुम्हारे हवाले सत्ताधारियों....। अब जो करना है करो तुम्हारी मर्जी है सत्ताधारियों...।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार