आधुनिक युग का आदमी

वसन की भांति पल पल रंग बदलते हैं, 

आधुनिक युग के आदमी, रिश्तों को कहाँ समझते हैं...


मिथ्या के आवरण में ढँके हुए,

बाह्य मधुर,भीतर स्वार्थ का स्वांग रचते हैं।

आधुनिक युग के आदमी,रिश्तों को कहाँ समझते हैं...


पल में बनाते नए मित्र,

पल में मित्रता पुरानी बिसरते हैं।

आधुनिक युग के आदमी, रिश्तों कहाँ समझते हैं...


बड़ों का सम्मान नहीं, छोटों पर ना नेह

स्वार्थ के रिश्ते सारे,मात पिता वृद्धाश्रम में पलते हैं।

आधुनिक युग के आदमी, रिश्तों को कहाँ समझते हैं...


हॄदय में भावना नहीं, कटु वचन जीह्वा पर,

कलुषित मानसिकता,स्वार्थपरायण कुछ भी कर गुज़रते हैं।

आधुनिक युग के आदमी,रिश्तों को कहाँ समझते हैं...


विषधर से भी विषैले, धरा के ये जीव हैं,

स्वांग रचकर ,अपनों को भी डंसते हैं।

आधुनिक युग के आदमी,रिश्तों को कहाँ समझते हैं...


डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)