ज्ञान स्नेह अपनत्व से, बाँधे जन मन डोर।
बोल खड़ी हिन्दी मना, सत्साहित्य विभोर।।
युग वैश्विक बाजार का, मधुरिम हिंदी बोल।
सम्प्रेषण निश्छल सदा, 'ढुकती' हर मन कोर।।
सोच कथन हिंदी तकें,पढ़ लिखहों सब मुग्ध।
प्रति संगत मनहर रखे, चेतन ठौर अँजोर।।
उपमानक मानक सभी, विश्व प्रेम आधार।
गद्य काव्य चम्पू लखें, सबके मन रनछोर।।
हर विधि मत अपनत्व से, भेद परे अधिवास।
हिन्दी में भव मन छिपा, भाषा कुल अतिजोर।।
कोटि भाव इक 'धी' सजे, हिंदी हेतु महान।
अर्थ धर्म सँग राजनय, में जन भावित शोर।।
शैली देशी हिन्द की, बहु प्रवाद की थाम।
श्रम सेवा साधन जुड़ें, हिंदी गिरह न थोर ।।
जन उद्यम की राह को , हिन्दी दे विस्तार।
तजें आंग्ल अनुराग हम, सेवा शिल्प निहोर।।
ठौर=स्थान, रणछोर=भगवन, कुल=कुटुंब।
मीरा भारती