वीरेंद्र बहादुर सिंह
महाज्ञानी गुरु की अपेक्षा उनका शिष्य दो कदम आगे निकल जाए तो इस स्थिति पर कटाक्ष करने के लिए हमारे यहां एक बहुत सुंदर मुहावरा है 'गुरु गुड़ ही रहे और चेला चीनी हो गया' यानी गन्ने को पेरने से जो मधुरस निकलता है, उससे गुड़ बनता है, जबकि शक्कर तो उसके बाद बहुत ज्यादा शुद्धिकरण किया गया रूप है।
एक समय विश्वगुरु कहे जाने वाले भारत के मामले में उपर्युक्त मुहावरा कितना फिट बैठता था, आइए यह देखते हैं। शरीर को स्वस्थ और सुडौल रखने वाला योगासन विज्ञान हमारे देश में 1200 ई.पू. के आसपास आया माना जाता है। योगासन का बोलबाला सदियों तक रहा, इसके बाद इसका सूर्य अस्ताचल में जाने लगा। भारतीय इस विज्ञान को भूलने लगे, पर पश्चिमी देशों ने इस योगविद्या को अपना लिया। परदेशी लेखकों ने योग के महात्म्य को समझाते हुए 'योगा फार बेटर लिविंग, योगा ऐज मेडिसन, द योगा बाइबिल' जैसे शीर्षकों वाली पुस्तकें लिखीं। साइंटिफिक रिसर्च पेपर्स निकाले, डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई। इतना ही नहीं, योग करने की सही रीति समझाई। एक समय के योग गुरु भारत ने दुनिया को जो योगविद्या दी, अंत में वह वाया यूरोप-अमेरिका भारत वापस आई। हम अल्टरनेटिव थेरेपी के वजनदार लेबल के अंतर्गत योगविद्या और मेडिटेशन सीगने लगे।
योगविद्या की ही तरह आयुर्वेद के साथ भी हुआ। नीम, हल्दी, चंदन, हरड़, इसबगोल, सर्पगंधा, शतावरी, गूगल, मूसली आदि कुदरती औषधियों के गुण के बारे में सुश्रुत, चरक और धन्वतरि जेसे आयुर्वेदाचार्य वर्षों पहले आयुर्वेद के मोटे-मोटे ग्रंथों में बहुत कुछ लिख गए हैं। पर इन ग्रंथों को घर की मुर्गी समझ कर उपेक्षा की गई। आखिर 1995-96 के अरसे में नीम, हल्दी और इसबगोल पर अमेरिकी फार्मा कंपनी ने पेटेंट लिया तो हमारी आंखें खुलीं। आज परदेशी फार्मा कंपनियां भारथीय आयुर्वेद को धता बताते हुए प्राकृतिक औषधिथों के सत्व वाली एलोपैथिक दवाएं (जैसे कि सर्पगंधा पर आधारित रक्तचाप के लिए राउवोल्फिया सर्पेंटिना) भारत सहित अनेक देशों में बेच कर खूब पैसा कमा रही हैं।
गुरु गुड़ ही रहे और चेला चीनी हो गए का तीसरा उदाहरण भी देखिए। छोटी उम्र में माता-पिता की छत्रछाया के अलावा सारी सुख-सुविधा छोड़ कर जंगल में एक साधु की तरह रहना ठंड-गर्मी-बरसात हहन करना, गुरु और देवस्थल को समर्पित हो कर उनके पास से विविध विषयों का ज्ञान लेना, आत्मसुरक्षा के लिए शस्त्र विद्या सीखना आदि प्राचीन भारत में आश्रम शिक्षा का चलन था। समय के साथ इसे पुरानी परंपरा का नाम दे कर खत्म कर दिया गया। अंग्रेजों द्वारा भारत में लाया गया मार्डन एजूकेशन सिस्टम अपनाया गया, जिसमें विद्यार्थियों को ईंट-पत्थर की चार दीवारों के बीच कैद कर दिया गया। दीवारें उनके लिए शारीरिक ही नहीं, मानसिक कैदखाना बन गईं। क्योंकि बंद कमरों में जो सिखाया जाता है, उसमें बाहर के कोई मौलिक विचार मार्डन एजूकेशन सिस्टम को मंजूर नहीं थे।
जंगल में जा कर रहने और किताबी नहीं, प्रेक्टिकल ज्ञान प्राप्त करने की प्राचीन भारतीय आश्रम शिक्षा प्रणाली हमारे देश में लगभग खत्म हो गई है। दूसरी ओर इस कारगर प्रणाली का यूरोपीय देश फिनलैंड पूरी तरह अनुकरण कर रहा है। केवल पढ़ाई के बजाय फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली अंक पाने के लिए नहीं है, बल्कि बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए है। अभी जल्दी ही फिनलैंड ने बुनियादी विकास के लिए एक कदम
आगे बढ़ाया है। तीन से पांच साल के बच्चों के लिए वहां के शिक्षातंत्र ने समूजात कहा जाने वाला खास प्रोग्राम बनाया है, जिसके अंतर्गत बच्चों को सात घंटे जंगल में बिताना होता है।
क्या है समूजात प्रोग्राम और बच्चों को विकसित करने में इसका कैसा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, इस पर की जाने वाली चर्चा केवल पढ़ने भर के लिए नहीं है, बल्कि पढ़ने के बाद उस पर विचार करने लायक है।
उत्तरी गोलार्ध में इस समय ठंड का बोलबाला है। नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क और फिनलैंड जैसे यूरोप के स्केरंडिनेवियन देशों में तो भीषण ठंड पड़ती है। दिन का सामान्य तापमान शून्य से नीचे पांच से पंद्रह डिग्री सेल्सियस जितना रहता है। इस विषम वातावरण में सामान्य रूप से बच्चों को स्कूल की चार दीवालों में हीटर की गर्मी में पढ़ाना चाहिए। पर यह परंपरागत ख्याल है, जो फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली के 'सिलेबस' में नहीं है। देश की नई पीढ़ी को कोमल नहीं, बल्कि साहसी प्रकृति की बनाना फिनलैंड की सरकार के लिए अग्रिम आवश्यकता है। इससे ठंड-गर्मी-बरसात जैसी प्राकृतिक आपदा समूजात प्रोग्राम में हर्डल नहीं बन सकती।
इस प्रोग्राम के अंतर्गत तालीम (शिक्षा नहीं, तालीम) लेने वाले तीन से पांच साल के बच्चों को उनके माता-पिता गरम कपड़े पहना कर एकदम सुबह स्कूल पहुंचा जाते हैं। इसके बाद स्कूल की बस उन्हें जंगल पहुंचाती है, जहां शिक्षकों की देखरेख में बच्चे अपने पिट्ठूबैग उठा कर कम से कम 40 मिनट की ट्रेकिंग कर बेज कैम्प पहुंचते हैं। ट्रेकिंग के दौरान शिक्षक उन्हें वन, वृक्ष और फूलों के बारे में अनोखी जानकारी देते हैं। समूह में एक दूसरे की मदद की महिमा समझाते हैं, साथ ही ट्रैकर के आगे निकल जाने की स्पर्धात्मक विचार के बदले सहयोग की भावना के साथ चलना सिखाते हैं।
एक-दूसरे से कदम से कदम मिला कर पूरा संघ बेज कैम्प पहुंचता है तो स्कूल द्वारा पहले से तैयार किए तंबुओं में आराम करता है। जंगल में बना बेज कैम्प आगामी छह घंटों के लिए हर बच्चे के लिए ओपन एयर स्कूल या जहां वे शिक्षक से ज्ञान प्राप्त करते हैं, चित्रकला बनाते हैं, पजल्स हल करते हैं, गेम्स खेलते हैं, मिट्टी के घर बनाते हैं, पेड़ की डालों पर चढ़ते हैं, उन पर झूलते हैं, पक्षियों के गीत सुनते हैं और बेज कैम्प के आसपास जंगल में घूमने भी जाते हैं। दोपहर का लंच कर के सभी बच्चे आधपौन घंटे तंबू में आराम करते हैं। दिन के सात घंटे प्रकृति के सान्निध्य में बिता कर शाम को पैदल चल कर बस तक और फिर बस से स्कूल आते हैं, जहां से माता-पिता अपने अपने बच्चों को घर ले जाते हैं।
सप्ताह के पांच स्कूली दिन में सोमवार, मंगलवार और बुधवार, तीन दिन जंगल के ओपन एयर क्लास में बिताना फिनलैंड के समूजात प्रोग्राम का उद्देश्य है। इन तीन दिनों के दौरान वातावरण भले ही कितना भी विषम हो, बच्चों को उसका सामना करना ही पड़ता है। सच पूछो तो यह उनकी शारीरिक और मानसिक तालीम का हिस्सा है। इससे बच्चों का इम्युन सिस्टम/रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।
इस मुद्दे को शरीर विज्ञान के दृष्टिकोण से समझते हैं। बच्चे का जन्म होता है तो वह उसके बाद अनेक प्रकार के वायरस (विषाणु), वैक्टीरिया (जीवाणु) के संपर्क में आता है। धूल-मिट्टी, फूल-पेड़, बाह्य वातावरण नल या झरने का बहता पानी आदि के द्वारा उसके शरीर में विषाणु-जीवाणु आदि प्रवेश करते हैं, इसलिए उन्हें खत्म करने के लिए शरीर का रोगप्रतिकारक तंत्र किलर टी-सेल्स नाम के रक्षात्मक योद्धा कोशिकाओं को बढ़ा देता है। वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा साबित हुआ है कि मिट्टी में खेल कर बड़े होने वाले बच्चे के शरीर का रोगप्रतिकारक तंत्र खासा मजबूत होता है। एलर्जी, दमा, सर्दी-खांसी जैसी तकलीफें जल्दी असर नहीं करतीं। मिट्टी में स्थित माइकोवैक्टेरियम वैक्के नाम का वैक्टीरिया इसके लिए जिम्मेदार होता है, जो इम्युन सिस्टम के किलर टी-सेल्स को उत्तेजित करता है।
इस तरह की कोशिकाओं की अक्षौहिणी सेना हमलावर विषाणुओं-जीवाणुओं को हराने की शक्ति प्राप्त कर लेता है। आधुनिक जीवनशैली ने हमारे जीवन को कोमल बना दिया है। धूल-मिट्टी से दूर रहना, फूल के रज और पेड़ के फंगस से दूरी बनाए रखना, आरओ या मिनरल वाटर के अलावा दूसरा पानी न पीना, एअरकंडीशनर वातावरण में रहना आदि जैसी आदतों ने नई पीढ़ी की रोगप्रतिकारक शक्ति को गड़बड़ कर दी है। इसीलिए विषाणु-जीवाणु का जरा भी इन्फेक्शन उन्हें बीमार कर देता है।
इस दृष्टि से प्राचीन भारत के जंगल के आश्रम की शिक्षा बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने में बहुत कारगर थी। मार्डन शिक्षा प्रणाली आने के बाद तमाम साल इस तरह बीते कि लगभग हर स्कूल में बच्चों को धूल-मिट्टी में खेलने के लिए विशाल मैदान होते थे। आज अधिक से अधिक बच्चों को समायोजित करने के लिए तमाम क्लासरूम बना कर धूल-मिट्टी के मैदानों को भूतकाल बना दिया गया है।
फिनलैंड का समूजात प्रोग्राम थ्री डायमेंशनल यानी कि त्रिपरिमाणीय है, जिसके दो पहलू (बच्चों की शारीरिक तथा मानसिक रूप से मजबूत करना) के बारे में यहां बात की गई है। अब तीसरे पहलू की बात करें तो इसमें प्रकृति के प्रति आदरभाव पैदा करना है। सोमवार, मंगलवार और बुधवार, इस तरह तीन दिन सात-सात घंटे प्रकृति की गोद में खेलते हुए विद्यार्थियों को उनके शिक्षक जंगल की संकीर्ण जैविक परिस्थितिकी समझाते हैं। विभिन्न जीवों और पर्यावरण के लिए उनकी जरूरत और संबंध को समझाते हैं।
बचपन में कोरी पाटी जैसे दिमाग में अंकित होने वाली इस तरह की जानकारी आजीवन याद रहेगी। इतना ही नहीं, प्रकृति, पर्यावरण और पशु-पक्षियों के प्रति सहिष्णुता का भाव उनमें पैदा होता है। यह गुण समय के साथ स्वभाव बनता है, इसलिए अपनी कार्बन फूप्रिंट जितनी संभव हो, उतनी छोटी रखने के लिए प्रयत्न भी करते हैं। गाड़ी चलाने, प्लास्टिक के उपयोग, बिजली के उपयोग से सीधे या गलत तरीके से वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड तथा मीथेन जैसी ग्रीनहाउस वायु पैदा करने में हमारी भागीदारी कार्बन फूटप्रिंट के रूप में जानी जाती है। वातावरण को जितना कम दूषित करेंगे, कार्बन फूटप्रिंट उतनी छोटी होगी।
फिनलैंड की सरकार द्वारा लाया गया समूजात शिक्षा माडल इतने सकारात्मक परिणाम ला लहा है कि जर्मनी, स्काटलैंड और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी इसे अपना रहे हैं। आश्रम शिक्षा का प्राचीन भारतीय विचार पुरानी परंपरा का लेबल लगा कर हटा चुके हम भारतीय जल्दी तो नहीं, पर कभी न कभी फिनलैंड के समूजात प्रोग्राम को अपना सकते हैं। क्योंकि हम अपनी ही परंपरा को भुला चुके हैं।