यूं तो भारतीय राजनीति में दलबदल और सत्ता के लिये तमाम तरह के सही-गलत गठजोड़ों में शामिल होना या उनसे अलग होना नई बात नहीं है, परन्तु बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रविवार को जिस तरह एक बार फिर अपनी ही सरकार को गिराकर नई सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है, वह नैतिक गिरावट के नये मानदण्ड के रूप में याद रखा जायेगा। लगभग 17 माह तक राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर जनता दल यूनाईटेड के सुप्रीमो नीतीश कुमार ने जो सरकार चलाई थी, वह भी उन्होंने 2017 में भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर चलाई जा रही अपनी सरकार को तोड़कर बनाई थी।
नीतीश के खाते में ऐसे कई अनैतिक सियासी किस्से दर्ज हैं, परन्तु जिस प्रकार से अबकी बार उनका आचरण रहा है, वह उनकी नैतिक गिरावट की एकदम नई इबारत ही कही जायेगी। 1994 में जनता दल से अलग होकर नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया था और 1996 में भाजपा के साथ हाथ मिलाया था। 2003 में उन्होंने जेडीयू गठित की थी और 2005 में भाजपा के साथ मिलकर बिहार में सरकार बनाई थी। भाजपा प्रणीत नेशनल डेमोक्रेटिक एलाएंस (एनडीए) के सहयोगी के रूप में उन्होंने 2013 में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का विरोध करते हुए भाजपा का साथ छोड़ा था। 2014 में उनकी पार्टी ने लोकसभा का अकेले चुनाव लड़ा था।
तब उसे केवल 2 सीटें हासिल हुई थीं जबकि 2009 में उसके पास 18 सीटें थीं। 2014 में पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतनराम मांझी को अपनी गद्दी सौंपी थी। विधानसभा में बहुमत परीक्षण के दौरान लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल एवं कांग्रेस ने समर्थन देकर सरकार को बचा लिया था जिससे तीनों दलों के महागठबन्धन की राह खुली थी। 2015 के विधानसभा चुनावों में उसे सफलता भी मिली। 2017 में नीतीश ने फिर सरकार पलटाई।
भाजपा के साथ सरकार बनाकर वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर डटे रहे। सदन में गठबन्धन का बहुमत रहा। भाजपा के दो उप मुख्यमंत्री वाले फार्मूले एवं नेशनल सिटीजन्स रजिस्टर के मुद्दे पर असंतोष जताते हुए उन्होंने भाजपा का साथ अगस्त 2022 में छोड़ दिया और फिर से राजद के साथ सरकार बना ली- मुख्यमंत्री वे ही बने रहे। अब रविवार को उन्होंने सुबह अपने पद से इस्तीफा देकर शाम होते-होते भाजपा की मदद से फिर सरकार बना ली।
बार-बार पलटने की बात एक ओर रख दी जाये तो भी नीतीश ने अनैतिक आचरण की जो मिसाल पेश की है वह निहायत लज्जाजनक है। हालांकि इसमें भाजपा भी बराबरी की जिम्मेदार है जबकि पिछले करीब 17 माह दोनों ने एक दूसरे को कोसने में निकाले हैं। नीतीश कुमार ने 2017 में गठबन्धन को तोड़ते हुए कहा था कि भाजपा के साथ जाना उनकी बहुत बड़ी गलती थी।
अब वे मर जायेंगे परन्तु भाजपा के साथ कभी नहीं जाएंगे।श् दूसरी ओर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक चुनावी सभा में ललकार कर कहा था कि नीतीश एवं लल्लन प्रसाद सिंह (पूर्व जेडीयू अध्यक्ष व सांसद) सुन लें कि उनके लिये भाजपा के दरवाजे हमेशा के लिये बन्द हो गये हैं। हाल ही में केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भी ऐसा कह चुके थे।
इधर पिछले दिनों से ही सुगबुगाहट थी कि नीतीश बाबू फिर पलटी मारने वाले हैं। यह चर्चा तभी से आम हो गयी जब वे राज्यपाल राजेन्द्र अरलेकर से मिलने गये थे। हालांकि उस मुलाकात को शिष्टाचार भेंट बतलाया गया था। शनिवार तक जेडीयू के कई वरिष्ठ नेता कहते रहे कि सरकार बनी हुई है और गठबन्धन बरकरार है।
इन बयानों के 24 घंटे बीतते न बीतते नीतीश कुमार ने नौंवी बार सीएम पद की शपथ लेकर अवाम को समझा दिया है कि राजनीतिज्ञों की जुबान पर कितना भरोसा किया जाये। राजनीति की साख का जो संकट है, वह किसलिये है- यह भी नीतीश कुमार ने सोदाहरण समझाया है। नीतीश का इस वक्त प्रदर्शित यह आचरण किसी एक प्रदेश की सरकार के बनने-बिगड़ने या सीएम की कुर्सी से बढ़कर है। भारतीय लोकतंत्र को इससे बड़ा धोखा इस लिहाज से नहीं दिया जा सकता कि करीब तीन महीने बाद ही होने वाले लोकसभा चुनाव में पहली बार मोदी व भाजपा को संयुक्त प्रतिपक्ष की बेहद कड़ी चुनौती मिल रही है।
जिसका नीतीश अहम हिस्सा थे। एक तरह से मृतप्राय हो चुकी संयुक्त विपक्ष की अवधारणा को जिन लोगों ने पुनर्जीवित किया है, उनमें नीतीश प्रमुख थे। तकरीबन एक साल पहले उन्होंने इसके बाबत चर्चा शुरू की थी और आज जो इंडिया नाम से महागठबन्धन बना हुआ है, उसकी पहली बैठक नीतीश की पहल पर ही बिहार की राजधानी पटना में हुई थी। उन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व की स्वीकार्यता बनाने में भी बड़ी भूमिका निभाई थी।
वे यह भी कहते रहे कि इंडिया में संयोजक या प्रधानमंत्री पद के लिये कोई लड़ाई नहीं है। वे महागठबन्धन के प्रमुख शिल्पकार रहे इसलिये उनके बयानों ने सहयोगी दलों एवं भाजपा के विकल्प के रूप में गठबन्धन की ओर निहारती अवाम में उत्साह जाग्रत हुआ था। वैसे जानकार कह रहे हैं कि इस दोबारा बने मेल से नीतीश व भाजपा दोनों की ही छवियों में राज्य के भीतर बड़ी गिरावट आयेगी तथा इसका फायदा कांग्रेस एवं राजद को मिलेगा। लोकसभा चुनाव में ये दोनों दल तथा वामपंथी पार्टियां अधिक सीटें पा सकती हैं। खैर, यह बाद की बात है, परन्तु इतना जरूर है कि नीतीश ने अपने पहले के तमाम कलंकों को धोने का एक अनुपम अवसर खो दिया।