चरण मेरे आज भी शिथिल

समय चक्र पल पल घूम रहा,

बिन आहट नव ऋतु पर झूम रहा।

चरण मेरे आज भी शिथिल हैं,

मिथ्या कल्पनाओं ने पग धरा।


पृथ्वी का नित आवर्तन,

भर देता उजास और नवजीवन,

मुझ मूढ़ ने कर ली आँखें बंद,

स्वयं को किया बस तुझपे अर्पण।


मैं बढ़ती हूँ फिर रुक जाती,

जाने किस भ्रम में उलझ जाती।

तारक लोचन से सींच नभजल,

अंजन मिश्रित लिखूं मैं पाती।


जाना चातक का एकाकीपन,

प्रीत मीठा तीखा दंशन,

झूठ पर सत्य का है मुकुर,

नेह की पीड़ से शिथिल मन।


डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )