कोई कहता साठ के ठाठ
ही कुछ अलग हैं
कोई कहता साठ में सठिया
जाते हैं लोग
कोई कुछ तो कोई कुछ है कहता
पर सच पूछो तो लगता है
डर बहुत उस उम्र में पहुँचने को
जब सब अपनी अपनी दुनिया
अपनी अपनी घर गृहस्थी में
हो जाते मग्न
लेता कोई कभी कभार ही सुध बुध
हो कोई विशेष दिन या फिर त्योहार ।।
कहीं तो ये भी नसीब नहीं होता
सिर्फ तन्हाई होती है मुखर
सुबह फीकी दिन उदास रात खामोश
बस कोई साथ होता है
तो अकेलापन और दर्द
पथराई आँखे, उखड़ी साँसे,
बेबस घुटने , थके हारे कदम
यूँ ज़िन्दगी बन जाती
बेबस,सूनी और अकेली
जब कोई नहीं होता
पल भर को ही बैठने को साथ,
सुनने को कोई बात या
बांटने को दुख सुख .....बस मौन रहता
है लपेटे मन और शरीर को।।
वहीं कुछ लोग जीते हैं जी भर के खुल के
देश विदेश की यात्रा
मूवी, मॉल,पार्टी ,
घूमना फिरना, खाना पीना
जीना ज़िन्दगी को जी भर के
होकर मुक्त सभी ज़िम्मेदारीयों से
न कोई मोह ,
न कोई बंदिश
न कोई बंधन,
न कोई रोकटोक
बस खुल के जीते हँसते
खिल खिलाते सिर्फ
खुद के लिये
होकर चिंता से परे
खुशियों के करीब ।।
इसके विपरीत कहीं
घर परिवार की बेड़ियों
में जकड़ी बूढ़ी माँ रसोई
की बागडोर संभालती
बच्चों के बच्चों को पालती
बहू बेटे के नाज़ नखरे उठाती
पति की देखभाल, सेवा, दवा
बस एक पैर पर खड़ी
कब सुबह से रात हो जाती
यूँ भागते दौड़ते पता भी नहीं
चलता और जब थक हार
कर कराहती बिस्तर पर लेटती तो
किसी को खबर भी नहीं होती
उसकी अंतर पीड़ा, दर्द और बेबसी की ।।
इसलिए लगता है डर बहुत
कैसी होगी ज़िन्दगी
कौन सा रंग होगा
क्या हाल होगा
कैसी स्थिति होगी
साठ के होंगे ठाठ
या मुश्किलें, परेशानियां
बेबसी, तन्हाइयाँ और
मजबूरियाँ।।
......मीनाक्षी सुकुमारन
नोएडा