जिंदगी का रुख

जिंदगी रुख बदलते

देर नहीं हे लगती

तकदीर को सवरते

जिंदगी हे बनती


जो सोचते रहे हमारा बुरा

कर्म का ये यह सब फेरा

ईश्वर पर रखकर विश्वाश

बस वही था मेरे हि साथ


इंसानो का क्या हे राज

कोई नहीं जानता पास्ट

मन में रखकर कड़वाहट

मिठा बोलनें का करें नाटक


गिरगिट की तरह रंग बदले

न जाने कितने यह मसले

कोन, कब, कहाँ, फिसले

सम्भल सके न फिर सम्भले


सौ कविता पवन दाळू, खामगाव महाराष्ट्र