चलो, सीख लें अब ज़रा इत्मीनान होना

फकत उलझे रहे ताउम्र हम उलझनों में ही,

इतना भी मुश्किल नहीं था आसान होना !!


रहा अनदेखियों में अब तक अपना वजूद ही,

सीख लिया होता उस वक्त ही आईना होना !!


इंतज़ार में रहे, बड़े हो जाएंगे एक न एक दिन,

पर, रफ्ता-रफ्ता खोते ही रहे 'बचपना' होना !!


लिखा-कभी पढ़ा, कभी अधलिखा छोड़ दिया,

'वक्त' ने भी कभी चाहा नहीं मेरा किताब होना !!


समझ में कहां आईं वो सीधी-सादी लिखावटें,

चाहिए था हमको भी थोड़ा 'बेईमान' होना !!


बुलंदियों को मापने का यहां कोई पैमाना नहीं,

काश, वक्त रहते ही सीख लेते आसमान होना !!


अब हाल-ए-दिल क्या कहें, ये थोड़ा 'बुद्धू' है,

इसीलिए वो चाहे मेरा नालायक इंसान होना !!


हां, अजब इंतहा है इस ईश्क के 'इंतज़ार' की,

हम मिलें, या न मिलें, या कि कोई सज़ा होना !!


अगर चाहते हो, गिरती रहें आसमां से बारिशें,

इसके लिए अब जरूरी है वृक्षों का हरा होना !!


मैंने न कुछ कहा, न की कभी कोई जवाबदेही,

लेकिन चाह रही हूं अब ज़रा 'एतराज' होना !!


बेशक हम भटकते रहे 'तन्हा' ही इन रास्तों पर,

आओ सबके हिस्से में लिख दें मुलाक़ात होना !!


वैसे, कोई बेतुका किस्सा नहीं है यारों ये जिंदगी,

मैंने देखा है पहाड़ों का भी एक 'कविता' होना !!


जिंदगी भर हल करते रहे रास्तों की दिक्कतें,

'मनसी' चल सीख ले अब ज़रा इत्मीनान होना !!


नमिता गुप्ता "मनसी"

मेरठ,  उत्तर प्रदेश