मुर्दे नाचते भी हैं

साल में कुछ दिन ऐसा भी आता है

जब मुर्दे नाचते भी हैं,

चलते फिरते भी हैं,

उठते गिरते भी हैं,

बस बाकी के दिनों में

सो जाते हैं अपनी अपनी कब्रों में,

कतराते रहते हैं अन्य समय में

मिलना जुलना कथित भद्रों से,

जब जब आता है

अंबेडकर जयंती,

बाबा साहेब का अवसान दिवस,

संविधान दिवस,

ये कुछ गिने चुने दिन हैं

जब ये मुर्दे जाग जाते हैं,

नाच गाकर खुशी मनाते हैं,

बस हक़ अधिकार और संविधान को

न जान पाते हैं और

न जानना चाहते हैं,

मताधिकार के समय कब्र से निकलते हैं

मगर मत का सही उपयोग

करने के लिए नहीं अपितु

खाने पीने का मजा लेने के लिए,

संविधान को सजा देने के लिए,

क्योंकि ये मत का प्रयोग

बहकावे में आकर करते हैं,

बस इतनी है मुर्दों की कहानी।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग