क्या मिलेगा क्या

"क्या मिलेगा तुम्हें इन पार्टियों के पीछे-पीछे नारे लगाने से"?- पूछा मैंने सिगरेट का कश खींच रहे एक पैंतीस वर्षीय युवक से जो लड़ने-लड़वाने वाले नारों में अपना सिर खपा रहा था। नौकरी पर जाने वाली अवस्था में वह घर पर बोझ बना बैठा था। माथा कम सिलवटें ज्यादा थीं। कुल मिलाकर जिंदगी के नाम पर मरने का अभ्यास कर रहा था। जिस उम्र में हमारे युवकों को नौकरी, धंधा, शादी, बाल-बच्चे, खुद का अपना घर, मनोरंजन भरी दुनिया में रहना चाहिए। 

वह युवा से प्रौढावस्था की ढलान पर आँखों में सपनों को मारकर नारों का अभ्यास कर रहा था। मेरी बात सुनकर वह रुका, सिगरेट को मुँह से अलग किया फिर मुझे देखा। सच कहता हूँ कि कुछ कहने से पहले उसकी आँखें मुझे मारने के लिए काफी थीं। मानो आँखों ने अनुभव के विश्वविद्यालय में निराशा की सबसे ऊँची डिग्री प्राप्त की है। लगा उसके मुँह को मानो खाने के लिए केवल वादे मिलते हैं। कुल मिलाकर चेहरा कागज पर विकास करते देश की हकीकत को बयान कर रहा था। मैंने कोशिश की - "रोजगार, घर-बार, बीवी-बच्चे?' वह हँसा। फिर से सिगरेट को मुँह से लगा लिया। 

एक लंबी कश खींचते हुए मुझ  पर धुआँ छोड़ते हुए कहा – अंकल! किस दुनिया से आए हो? सरकारी योजना, उद्योग, भोजन, दवा, शिक्षा यह सब मेनिफेस्टो में सुहाते हैं। बदन की देखभाल करने से पहले मेरे पेट ने खुद को सिकुड़ लिया है। क्या यह काफी नहीं है जो नौकरी, घर-बार, बीवी-बच्चे के सपने देखने की हिम्मत करें? क्या मैं आपसे बात कर रहा हूँ यह काफी नहीं है इस सरकार के एहसान के रूप में?" मैं देखता रहा किसी का माँगा हुआ सिगरेट पीने वाले उस बंदे को रोजगार वाले पोस्टर पर बैठकर जिंदगी का धुआँ उड़ाते हुए।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, प्रसिद्ध युवा व्यंग्यकार