सिया जन्म से स्वयंवर

वो पावन धरा थी जनक के नगर की,

जहांँ हल चलाने पर जन्मी थी कन्या।

था मुख  चांँद  जैसा  वदन गौरवर्णी

सुकोमल अधर थे अलौकिक सी धन्या।


निसंतान राजा थे  रानी  तरसती

उठा गोद में नेह बारिश थी कर दी

वो पाला थ पोषा पिता मात बनकर  

सूना था आंँगन  बहारें थी भर दी।


जनक  नंदिनी  हुई धरा की सुता थी

सुनयना के दिल की दुलारी थी सिया

था इक दिन उठाया सिया ने पिनाकी

उसी दिन जनक जी ने प्रण था लिया।


प्रत्यंचा कर  से  धनु  जो चढ़ाएगा

वही जानकी का वरण कर पाएगा

रचेगा  स्वयंवर  जनक नंदिनी  का

जो तोड़ेगा धनुष मैं उसी को चुनूंगा।


आए राजे देश विदेश के की धनुष उठाने की कोशिश 

मुंह की खाएं हार गए सब रह गई अधूरी थी ख्वाहिश।

उठकर लक्ष्मन तड़ से बोले मांगी गुरु विश्वा से आज्ञा

भ्राता राम को श्री गुरुवर ने दी धनुष उठाने की आज्ञा।


ज्यों ही धनु्वा राम उठाए जपत  सिया गौरी को

माई हर लेउ भार तमाम वरण सियाराम को करे


उठत नजर श्रीराम ने डारी सीता जी के मुख पर

दोनों कर से छुए चरनवा गुरु विश्वा को झुककर

मनहि मन भाव उभरे

माई हर लेउ भार तमाम वरण सियाराम को करे


आशीष गुरु से पाए राम हो जाओ विजयी तुम

कुल की मर्यादा को रखना पौरुष में उत्तम तुम

सुकुमारी सिया मान धरे

माई हर लेउ भार तमाम वरण सियाराम को करे


हाथ लगावत धनु्वा टूटा छाई खुशी महल में

वरमाला ले सीता ठाढ़ी मंदहि मुस्कावत मन में 

सजावहिं श्रीराम के गरे

माई हर लेउ भार तमाम वरण सियाराम को करे


डॉ0 अलका गुप्ता 'प्रियदर्शिनी'

लखनऊ उत्तर प्रदेश।