सम्मेलनाय नमः

कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। जब समूह में फोड़ने की सोचते हैं तो उसी समूह को सम्मेलन का नाम दे दिया जाता है। जी हाँ सम्मेलन! भीड़ में साँप नहीं मरता और सम्मेलन में समस्या का समाधान नहीं होता। साँप मर जाए तो लाठियों का और समाधान हो जाए इन सम्मेलनों का कोई औचित्य नहीं रह जाता। एक डंसने के लिए और दूसरा समय-पैसे की खपत के लिए होना जरूरी है। इसीलिए दुनिया में इतनी लाठियों और बुद्धिजीवियों के होने के बावजूद दोनों का अस्तित्व जस का तस और अक्षुण्ण है।

वास्तव में सम्मेलन उन लोगों का समूह होता है जो अकेले तो कुछ नहीं कर सकते, लेकिन समूह बनने पर तीसमार खाँ बनने का दावा ठोंकते हैं। यहाँ कुछ हासिल करने से ज्यादा समय-पैसे खर्च करने के बढ़िया बहाने खोजे जाते हैं। इनके निरंतर चलने से बिस्कुट जैसे नरम और चाय जैसे गरम लोगों का मेल-मिलाप होता है, जो कि ऐसे संदर्भों में एक-दूसरे के पूरक का काम करते हैं। 

देखा जाए तो हमारे सम्मेलनों में पूरी तरह से लोकतांत्रिक पद्धति का पालन किया जाता है। यहाँ प्रतिभाओं से अधिक संविधान का और संविधान से अधिक उसका अपने हिसाब से इस्तेमाल करने वालों का आदर-सत्कार किया जाता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ सम्मेलनों की पूंछ हनुमान जी की पूंछ से भी लंबी होती है।

सम्मेलन की क्षमता सुनने-देखने से ज्यादा करने में होती है। उदाहरण के लिए हमारा देश पिछड़ा हुआ है, ऐसा कहेंगे तो देशभक्तों को गुस्सा आ जाएगा। हो सकता है कि बदले में कोई हमें पाकिस्तान भी जाने के लिए कह दे। इसीलिए हमने इन्हीं सम्मेलनों के चलते बीच का रास्ता अपनाया है। देश को विकासशील जैसी सुंदर संज्ञा देकर बाहर से शेरवानी और अंदर से परेशानी वाली जैसी छवि का निर्माण किया है। ऐसा करने से कानों को सुकून मिलता है और चेहरे पर बनावटी मुस्कान बनी रहती है। सम्मेलन कई तरह के होते हैं। उन्हीं में एक तरह का सम्मेलन है- ‘मुद्दे को कैसे भटकाया जाए?’ 

यह आजकल बड़े जोरों पर है। उदाहरण के लिए जब विपक्ष फलानी चीज की खरीद-फरोख्त में भ्रष्टाचार का आरोप लगाता है तब जनता का ध्यान भटकाने के लिए सरकार फलाने पर गोलीबारी करवा देती है। पेट्रोल-डीजल की कीमत के बारे में ज्यादा बहस न हो इसके लिए टमाटर-प्याज की कीमत बढ़ा देती है। सच्चे अर्थों में सम्मेलनों में ‘अ’ के बदले ‘ब’ और ‘ब’ के बदले अ’ सुनाने की तरकीबें खोजी जाती हैं। 

विश्वास न हो तो हमारे उच्च सदनों को ही देख लें। आजादी के बाद से वही तो करते आए हैं। चूंकि गरीबी कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। भ्रष्टाचार कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। भुखमरी कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। इसीलिए सम्मेलन कल भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। सच कहें तो यह देश हमसे नहीं सम्मेलनों से बना है।             

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, प्रसिद्ध युवा व्यंग्यकार