लोकतंत्र के लिए खतरनाक है थोक में सांसदों का निलम्बन

सोमवार का दिन भारत के संसदीय इतिहास के सर्वाधिक काले दिनों में से एक कहा जायेगा जब लोकसभा के 78 सदस्यों को निलम्बित कर दिया गया। ये सांसद पिछले बुधवार (13 दिसम्बर) को संसद में कुछ युवकों द्वारा किये गये प्रदर्शन को लेकर गृह मंत्री अमित शाह के बयान की मांग पर अड़े थे। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इसे सदन के कामकाज में व्यवधान मानते हुए इन्हें सत्र के लिए निलम्बित कर दिया। इसी विषय पर 14 तारीख को लोकसभा के एक तथा राज्यसभा के 13 सदस्यों को भी निलम्बित किया गया था।

 इस प्रकरण में अलग-अलग तरीकों से व विभिन्न नियमों का हवाला देकर कुल 151 सदस्यों को अब तक निलम्बित कर दिया गया है। थोक के भाव में सांसदों को बाहर का रास्ता दिखलाना यह दर्शाता है कि संसद को पूरी तरह से विपक्ष मुक्त बनाने का अभियान भारतीय जनता पार्टी द्वारा जो चलाया जा रहा है वह अपने चरम पर पहुंच गया है। लोकतंत्र के लिए यह बेहद खतरनाक है। 

किसी भी जनतांत्रिक प्रक्रिया में इसे अनुचित ही माना जायेगा क्योंकि सदन आखिर बना ही चर्चा के लिए है और विपक्ष का काम सरकार से प्रश्न पूछना ही है। सरकार का दायित्व है कि वह जवाब दे। हंगामे का जो कारण था, वह इस बात के लिए पर्याप्त आधार है कि सांसद उद्वेलित हों। जिस प्रकार से दो लोग लोकसभा की दर्शक दीर्घा से सदन में कूद पड़े थे और उनमें से एक व्यक्ति एक से दूसरी बेंच पर छलांगें लगाकर भागता रहा, उससे संसद की सुरक्षा व्यवस्था में गम्भीर खामी सामने आई थी। 

यह मामला सांसदों की सुरक्षा से तो जुड़ा ही है, इसकी गम्भीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह कृत्य संसद पर 22 वर्ष पहले हुए आतंकी हमले के ही दिन हुआ। विदेश में बैठे एक अलगाववादी नेता ने इसी दिन पर हमले की चेतावनी दी थी। इसके बावजूद जिस तरीके से ये साधारण से दिखने वाले व्यक्ति आये, एक ने पीला धुआं फैलाया और शेष ने सदन के बाहर नारेबाजी की, सारा कुछ अपने आप में मसले की नजाकत व उसे देश की सर्वोच्च पंचायत के भीतर बहस योग्य तो बनाता ही है। 

फिर, इस पर अगर विपक्ष गृह मंत्री से जवाब नहीं चाहेगा तो और किससे मांग की जायेगी? जिस दिन से यह घटना हुई है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं सदन से गायब हैं। यह मामला तो ऐसा है कि उन्हें खुद ही उपस्थित होकर सदस्यों को संतुष्ट करना था। मजेदार बात तो यह है कि संसद की सुरक्षा व्यवस्था को सुधारने का आश्वासन मोदी सदन के बाहर दे रहे हैं। उन्होंने कहा है कि कमियों को दूर किया जा रहा है। यह बात उन्हें सदन के भीतर कहने से आखिर क्या गुरेज है, यह समझ से परे है। 

मोदी व उनकी सरकार का इतिहास ऐसा ही रहा है। 2014 और 2019 में भी बड़ी संख्या में विपक्षी दलों को निलम्बित करने के उदाहरण देश देख रहा है। एक तो वे या उनके जिम्मेदार मंत्री सदन में जवाब नहीं देते और सदन में जब सदस्य इसकी मांग करते हैं तो उन्हें निलम्बित कर दिया जाता है। हाल ही में मणिपुर और गौतम अदाणी के मामलों में भी यही देखा गया। कांग्रेसी नेता राहुल गांधी व टीएमसी की महुआ मोइत्रा की सदस्यता छीनी गई। तरीका चाहे जो भी रहा। 

इस मामले में मोदी की कथनी व करनी में बड़ा अंतर नजर आता है। अभी इसी सत्र के शुरुआती अवसर पर मोदी का आग्रह था कि विपक्ष सकारात्मक रवैया अपनाये। उन्होंने कहा भी था कि प्रतिपक्ष हाल के विधानसभा चुनावों में पराजय का गुस्सा छोड़कर सदन में आये। इससे देश का उनकी ओर देखने का नजरिया भी बदलेगा। यह तो उन्होंने तंज कसते हुए कहा था लेकिन मोदी ने यह भी कहा था कि विरोधी नेता सरकार की गल्तियां बताए। उन्होंने विपक्षी दलों को सभी मुद्दों पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया था। 

उसके पहले नये संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर भी प्रधानमंत्री इसी तरह की बातें करते नजर आये थे। अब विपक्ष जब सरकार की खामियां सामने ला रहा है, तो मोदी व शाह सदन में जवाब देने से बचते फिर रहे हैं। यूं तो मोदी परस्पर संवाद के लिए हमेशा अपनी व सरकार की तैयारी बतलाते हैं परन्तु सच्चाई तो यह है कि वे जरूरी मुद्दों पर न तो सदन के भीतर चर्चा कराना चाहते हैं और न ही बाहर। 

सदन के अंदर जब भी उन्हें कहते सुना गया है तो वह है विपक्ष पर हमला और इतिहास में जाकर पिछले 75 वर्षों की बातें करना। किसी भी विषय पर तार्किक, तथ्यात्मक, आंकड़ों के साथ और बिन्दुवार जवाब देने की बजाये वे संवाद को अनर्गल और कटु मोड़ देते हुए ही दिखाई दिये हैं। सदन के भीतर उनकी कही बातों पर मेजें थपथपाने वाले लोगों का बहुमत है तो बाहर आयोजित होने वाली उनकी सभाओं में पार्टी कार्यकर्ता हैं, जो उनकी तथ्यहीन बातों पर श्मोदी मोदीश् का शोर मचाने में माहिर हैं। 

सदन के भीतर की ही तरह बाहर भी वे किसी के सवालों का जवाब नहीं देते। प्रेस कांफ्रेंस वे करते नहीं और कभी-कभार वे मीडिया से कोई बात करते भी हैं तो वह एकतरफा। सवाल वे लेते नहीं। तुर्रा यह कि इसके बाद भी वे भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। कांग्रेस मुक्त व विपक्ष मुक्त भारत का नारा देने वाले मोदी अपने विरोधियों को जिस योजनाबद्ध तरीके से खत्म कर रहे हैं, उसी के एक विस्तार कार्यक्रम की तरह संसद के दोनों सदनों से थोक के भाव में सदस्यों को निलम्बित किया जा रहा है। कहने को तो यह निलम्बन लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति का निर्णय लग सकता है परन्तु इन दोनों का जो व्यवहार देखा गया है। 

उसके मुताबिक दोनों ने सरकार व भाजपा के अंग की तरह यह काम किया है। ये निलम्बन ऐसे वक्त पर हुए हैं जब इस सरकार का यह लगभग अंतिम सत्र है। समझा जाता है कि अगले सत्र में केवल अनुपूरक बजट ही पेश किया जायेगा क्योंकि अप्रैल में आचार संहिता लागू हो सकती है ताकि मई में लोकसभा चुनाव कराये जा सकें। ऐसे में कह सकते हैं कि सरकार का इरादा साफ है कि वह कई महत्वपूर्ण बिल संसद में बिना चर्चा के पारित कराना चाहती है। अभी ही अनेक विधेयक बगैर चर्चा के पास होकर कानून का रूप ले चुके हैं। सरकार का उद्देश्य विरोधी सदस्यों को दोनों सदनों के बाहर ही रखना है। 

फिर, जैसे कि कयास लगाये जा रहे हैं, कि 22 जनवरी, 2024 को मोदी के हाथों तय किये गये राममंदिर के उद्घाटन के तुरन्त बाद लोकसभा के मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो सकती है- इन चुनावों की तैयारी के लिए भाजपा अपने लिए विरोध-मुक्त वातावरण बनाने में जुटी है।

 इन तमाम परिस्थितियों को देखते हुए एकदम स्पष्ट है कि दोनों सदनों के संचालक (क्रमश: अध्यक्ष व सभापति) सरकार के मददगार बनकर काम कर रहे हैं। वे भी नहीं चाहते कि सरकार के सामने कोई भी विपक्ष खड़ा हो जो मोदी, उनकी सरकार व पार्टी को असहज स्थिति में डाल सके। इन तरीकों से हो सकता है कि मोदी अगला चुनाव फिर से जीत जायें परन्तु ऐसे फैसले लोकतंत्र के लिये घातक हैं।