कि अपने हिस्से के दर्द हम वहीं छोड़ आते हैं

कि कुछ इस तरह से वो हम पर हक दिखाते हैं

अपने हिस्से के दर्द भी, हम वहीं छोड़ आते हैं!!


भले ही बीत जाए दिन, यूं उलझने-सुलझनें में 

मगर रातों की खामोशियां,वहीं गुजार आते हैं!!


भले ही लाख मना लें, मन अब सुनता ही नहीं

न चाहे तो भी, कदम वहीं क्यों मुड़ ही जाते हैं!!


सुनों, नहीं मिलता सुकून अब मन की बातों से ,

उसके "चुप" होने में भी,गीत मधुर सुन आते हैं!!


क्या कहूं, कि कैसा ये रिश्ता है मन के भावों का

अब हम आंसुओं में सिमटकर भी मुस्कराते हैं !!


नमिता गुप्ता "मनसी"

मेरठ, उत्तर प्रदेश