क्षण भंगुर मिथ्या या स्वप्न है ये जग
आंखों के चित्रपटी पर कल्प है ये जग।
किरणों के कण कण में जागती प्रात
सोती उलझन में बिन थपकी ये रात।
आभा बन मिट जाती जीवन ज्योति
खिलते आंसू सिप के बन पावन मोती।
कालचक्र के स्मित में घूमता ब्रह्माण्ड
विलुप्त है श्वासें जिसमें असंख्य संसार।
पाती वेदना मौन में जीत का बोध
पिलाती अतृप्ति प्याले से माया रस सोम।
जाने क्यूं बेहाल हो ढुलकती ओस बिंदु
जलधि की लहरों पर खेलती प्रायः इंदु।
सुंदर सहज या करुण कठिन है ये जग
विस्मरणीय छाया या लेख अमिट है ये जग
व्यथा दुःख क्रंदन पीर का वेग है ये जग
या स्पंदन स्नेह प्रेम सौहार्द का रेह है ये जग।
_ वंदना अग्रवाल "निराली "
लखनऊ