गौ सेवा में मानवीय और प्राकृतिक संस्कृति - संरक्षण के स्रोत

बचपन की शिक्षा गऊ माता के साथ जुड़ी हुई है। कलम थामने के साथ-साथ  भाषा सीखने की कवायद जैसे ही जोर पकड़ती है। गाय पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में निबंध लिखने की याद आज भी ताजा है। गाय उसके बच्चो  और बेलों की पूजा आरती की याद ताजा है।

 यह परंपरा जितनी भारत में है उतनी ही विदेशों में है। जहां प्रवासी भारतवंशी और भारतीयों का पीढ़ियों के प्रवास रहें है। इसका प्रमाण इसी वर्ष चुनाव के दौरान इंग्लैंड के प्रधान मंत्री ऋषि सुनक जी द्वारा अपनी पत्नी के साथ गाय की पूजा इसका उदाहरण है। कोरोना के बाद इम्यून सिस्टम बढ़ने के निमित्त गऊ माता के गले लगने सहलाने के व्यवसायिक उदाहरण से हम सब परिचित ही है।

गोमाता की सेवा करना मानवीय संस्कृति की पक्षधरता की पहचान कराती है। गहरे अर्थों में गऊ,  इसलिए मां है क्योंकि मां के दूध के द्वारा पालन होने के बाद अजीवन मृत्यु पर्यन्त तक गाय का दूध  हमारा पोषण करता है। हमारे धार्मिक अनुष्ठान और मिष्ठान का स्रोत गाय का दूध ही है। श्रीकृष्ण के साथ गाय को जोड़ने का विशेष दार्शनिक अर्थ है।

पिछले कुछ वर्षो में यूरोप की यात्रा में आस्त्रिया के इटली सीमा पर नाउदर गांव में गो सेवा का भारतीय पारंपरिक चलन देखा चार बजे तक गायों का दूध ग्वालो के द्वारा निकाल लिया जाता है और वे चरने चली जाती है  और सूर्यास्त से पहले लोट आती है। उनके गले की घंटियों की आवाजे  किसी धार्मिक नगर के मंदिरों के घंटो के एक साथ बजने की मांगलिक धुन  को छोड़ते हुए जंगलों की ओर बड़ जाती है। और उनके गोबर से उनके जाने की पगडंडी लिप जाती है। 

ऐसे में भारत की गायों के कई रास्ते और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की काठ की घंटियों की याद ताजा हो आती है।  नाउदर गांव में जब कोई गाय या उसका बच्चा नहीं रहता है तो उस घर में एक सप्ताह खाना नही बनता है और घर में किसी की मृत्यु होने जैसा शोक उस घर में ही नही बल्कि उस गांव में व्याप्त हो जाता है। ऐसे ही उड़ीसा जाने पर कोरापुट विश्व विद्यालय के कुलपति प्रो. चक्रधर त्रिपाठी जी ने बातों बातों में कहा कि यहां के गायों को दुहते नही है उसका दूध उसके बच्चों के लिए होता है।

भारत सहित विश्व के जिन भी देशों में परिवार के स्तर पर गो पालन और कुछ गाय के पालन से व्यवसाय होता है। वहां उसे परिवार में पालने वाले अन्य पशुओं की तरह रखा जाता है। वहां गो वध वर्जित है।  

विश्व के बड़े शहरों और गांवों में रहने घूमने के बाद अनुभव हुआ कि जिन गांव में गो पालन है, वहां की ग्रामीण संस्कृति प्रकृति सम्मत है। वहां पर्यावरण की समस्या नहीं के बराबर है इसके साथ साथ वहां के जीवन में मनवोचित  आचरण संहिता की प्रधानता है। इससे स्पष्ट है कि विश्व की अनेकानेक अमानवीय समस्याओं से निपटने के लिए ग्रामीण संस्कृति को अपनाना चाहिए जिसमे गो पालन की संस्कृति के संवर्धन से ग्रामीण संस्कृति को बल मिलेगा।

यह बात भी सही है कि पाश्चताय देशों में गोमांस लेने का चलन है उसकी भीषणता पर अगले आलेख में चर्चा होगी। विश्व मे केंसर सहित अनेक इलाज से परे की बीमारियों का कारण मांसाहारी भोजन ही नहीं बल्कि जीवन शैली भी है। इस सत्य को स्वीकारने में ही भलाई है।

प्रो. पुष्पिता अवस्थी

अध्यक्ष : हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन और

गार्डियन ऑफ अर्थ  एंड ग्लोबल कल्चर।

नीदरलैंड्स, यूरोप