दो डाकू

डाका शब्द सुन डाकू भी चौक रहे,

कुत्ते खामोश और टी वी चैनल भौक रहे,

दो दोस्त बड़े हुए,

बेरोजगारी की घेरे में खड़े हुए,

करें क्या नहीं सूझ रहे थे,

दाने दाने के लिए जूझ रहे थे,

वे छोटी मोटी चोरी करना नहीं चाहते थे,

पर पुनः भूख मरना नहीं चाहते थे,

दोनों चाहते थे डाका डाला जाये,

घर के बाहर हाथी पाला जाये,

एक लड़ने लड़ाने की शरारत करता था,

दूजा जोर जोर से ख़िलाफात करता था,

पहला शरारत ही करता रहा

और दूसरा नेता बन गया,

लोग पीछे चलने लगे

वो उनका प्रणेता बन गया,

फिर एक ने सीधा बैंक में डाका डाला,

एक झटके में करोड़ों निकाला,

साथी नेता ने विरोध में रैली निकाला,

भावनाओं पर भरने लगा मिर्च-मसाला,

डाकू कुछ दिनों बाद पकड़ा गया,

गिरफ्त में माल सहित आ गया,

पर नेता ने डाका डालने का

एक नायाब तरीका निकाला,

डायरेक्ट लोगों के वोट पर डाका डाला,

डाकू को सजा हुई मिला कारावास,

नेता मंत्री बना मिला कार और आवास,

लोकतांत्रिक समय में अब भी

ये दस्तूर बदस्तूर जारी है,

अपनी बात यहीं खतम करता हूं

क्योंकि ऐसे नेता बनने की

मेरी भी तैयारी है।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग