बन के हवा मैं इतराऊं नील गगन में छाऊं
उपवन के खिलते फूलों से मंद सुगंध चुराऊं।
बहूं स्वच्छंद मैं करूं आनंदमय
नहीं कोई आकार है मेरा नहीं है तन मन मेरा
मुझको कोई देख सके न, कभी सांझ न सवेरा
पर मेरा एहसास है न्यारा जीवन सुलभ बनाऊं
उपवन के खिलते फूलों से मंद सुगंध चुराऊं।
बहूं स्वच्छंद मैं करूं आनंदमय
रूप रंग मेरा न कोई पर मैं ही सबकी स्वांस हूं
मुझ बिन नहीं जिंदगी संभव मैं जीवन की आस हूं
सृष्टि के पंच भूत तत्वों में अभिन्न अंग कहाऊं
उपवन के खिलते फूलों से मंद सुगंध चुराऊं।
बहूं स्वच्छंद मैं करूं आनंदमय
क्षिति जल पावक गगन समीरा है सृष्टि की देन
पांच तत्व से बना शरीरा मानव है अनुपम चेन
पशु पक्षी जीव जगत मुझ बिन निष्प्राणित पाऊं
उपवन के खिलते फूलों से मंद सुगंध चुराऊं।
बहूं स्वच्छंद मैं करूं आनंदमय
मानव से विनती अलका की वन औ वृक्ष न काटो
वृक्ष नहीं होंगे तो पड़ेगो बाढ़ अकाल को चांटो
ऑक्सीजन की लूट मचेगी मैं गायव हो जाऊं
उपवन के खिलते फूलों से मंद सुगंध चुराऊं।
बहूं स्वच्छंद मैं करूं आनंदमय
डॉ0 अलका गुप्ता 'प्रियदर्शिनी'
लखनऊ उत्तर प्रदेश।