अधूरी आकांक्षाएं

चल रहीं है ज़िंदगी ढूंढती सपने अधूरे,

टूट कर है खोजती बुनते हुए कुछ सवेरे।

आज फिर मुंडेर पर सुन ली तान काग की,

आने को है जैसे कोई चाह छूटी ख्वाब की।

फिर वही उधेड़बुन व्यस्त पलों की सुर्खियां,

ठिठुरती छिप गई कहीं वो ठंडी सी सर्दियां।

छू लूं आसमान मैं भी नहीं सोचा था कभी,

चाह अधूरी न रहे पर मुठ्ठी भर आसमान की।

चंद लम्हे ही सुकून के लाके दे दे कोई मुझे,

व्यस्त है ये ज़िंदगी खोजती राहतें मुकाम की।

उधेड़बुन समेटने की लम्हों को कुछ इस तरह,

बुन दूं ख्वाब थोड़े से मिटाकर कुछ सिसकियां।

खफा न हो जिंदगी कि मैने कुछ इसे दिया नहीं,

पिया हैं अमृत जो इसका विष इसे करना नहीं।

कुछ मुस्कुराहटें दे सकूं न ये जिंदगी बेबस रहे,

कुछ पल समझ लूं क्यों भला ये कशमकश सहे।

बुनना है खुद लम्हों में इसे लम्हों की ये हैं जिंदगी ,

कोई लम्हा न व्यर्थ हो करूं कुछ ऐसी मैं बंदगी।


स्वरचित एवं मौलिक

कंचन वर्मा

शाहजहांपुर , उत्तर प्रदेश