पतझड़ में पुराने
पीले पात जो झड़ कर
गिरे पृथ्वी पर
पड़े पैरों तले
पिस रहे थे
पीड़ा में पल रहे थे।
रूप नहीं रहा
रंग घुल गया
रिश्ता टूट गया
रिसने लगा दर्द
पर अब भी
रूठे नहीं
राह से भटके नहीं
रुह की गहराई तक
जुड़े हुए हैं
साथ निभा रहे हे
अपने जनक से।
भू पर गिर कर
बेजान धूल में धूल बने
अब भी वृक्ष की
छत्र छाया में पड़े हैं।
इन्हीं झरे पीले पत्तों से
सीखना हे एक गहन सबक,
प्रत्येक भारतीय को,
जीवन का सफर
कैसे भी बीता है
हृदय की गहराई तक
स्वीकारो मां भारती के
अपनत्व को।
जीवन तो सिमटेगा
अंत में इसी माटी में।
बेला विरदी
1382, सेक्टर -18
जगाधरी
8295863204