बस पुराण

इसरो के वैज्ञानिक और हमारे गाँव के बस यात्री में कोई अंतर नहीं है। एक रॉकेट की उल्टी गिनती को लेकर तो दूजा बस में सीट को लेकर बेचैन रहता है। गाँव में बड़ी मुश्किल से एक बस आती है। इसलिए सीट को लेकर बहुत मारा-मारी होती है। बस आते देखकर हम लोगों की आँखों में एक नया तेज आ जाता है। खून उफान मारने लगता है। कतार में चढ़कर हम पढ़े-लिखे बेवकूफ नहीं कहलाना चाहते थे। इसलिए जैसे ही बस रुकी सभी ने धाबा बोल दिया। दरवाजे से बूढ़े-औरतें चढ़ते हैं। असली मर्दानगी तो खिड़की से चढ़ने की है। किसी ने खिड़की पर हाथ रखा तो किसी ने पैर और किसी ने अपना सिर धर दिया। मानो ऐसा लगता किसी भूतिया फिल्म की शूटिंग चल रही हो। सारे के सारे जॉम्बी यहीं से एंट्री लेना चाहते हों।       

दरवाज़ें से चढ़ने वाले यात्री अपने भाग्य को उस समय कोसने लगते हैं जब वह सीट की ओर देखता है। सीट पर तो पहले से किसी ने अपना रुमाल, तौलिया, छतरी, गठरी, चप्पल, जूता रख दिया है। सीट छेपने के इस उपाय का पेटेंट न करवाया जाय तो बहुत जल्द नासा वाले इसका पेटेंट करवा लेंगे। पता चला कि वे अंतरिक्ष में जाकर कॉपी कैट की तरह तौलिया, चप्पल, जूते धरकर ग्रहों और तारों पर मालिकाना हक जताने लगे। अजीब स्थिति तो तब तब होती है जब एक बंदा अपनी बाहें और टांगे फैलाकर चार सीटें छेप लेता है। वैसे वे बैठने वाले दो ही बंदे हैं लेकिन चार सीटों को छेपने के पीछे का फंडा विच वन इज बेस्ट वन वाला होता है। जो सीटें अच्छी लगीं उस धर लेते हैं और बाकी छोड़ देते हैं।

खिड़की वाली सीट का अपना ही मज़ा है। खिड़की मिल जाए तो कहने ही क्या। किंतु खिड़की मिलने का यह मज़ा तब फुर हो जाता है जब कोई मुँह में गुटखे का गुबार बनाए मुँह उठाकर  आ जाता है। देखा जाए तो आधार कार्ड में स्त्री, पुरुष, अन्य के साथ-साथ इन लोगों के लिए भी एक कॉलम होना चाहिए। वे बस में चढ़ते ही चूहे की तरह बिल यानी अपने लिए खिड़की वाली सीट ढूँढ़ना शुरु कर देते हैं। उस समय उनके मुँह से केवल एक ही भाषा निकलती है – ‘ऊ...ऊ...ऊ...’। उनकी यह भाषा संविधान से मान्य नहीं है लेकिन उससे ताकतवर है। समझकर खिड़की वाली सीट दे दी तो ठीक नहीं तो आपकी कमीज़ पर मधुबनी रंगोली बनने में देर नहीं लगेगी।    

मज़ा तो तब आता है जब लगता है कि यह सीट हमारी हो गई तभी कोई बुढ़िया एंट्री मारकर खेल बिगाड़ देती है। वह आकर भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, रीति-रिवाजों के नाम पर हमारी सीट छीन लेती है। ऐसे समय में यूपीएससी अस्पिरेंट को इसी विषय पर प्रश्न पूछ लिया जाए तो वह पक्का लिखेगा – ‘भाड़ में जाए ऐसे मूल्य। सीट से बढ़कर कोई संस्कृति, सभ्यता, परंपरा और रीति-रिवाज नहीं है।‘  देखा जाए तो बस किसी मठ, मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर से कम नहीं है। सीट मिल जाए तो बैठने वाला गीता-कुरान का सार सुनाने लगता है।  कहने लगेगा – सीट के लिए क्यों लड़ते हो। 

दो मिनट का ही सफर है। देखते-देखते कट जाएगा। इसके लिए इतनी मारा-मारी क्यों। आज जो यह सीट हमारी है कल वह किसी और की थी और कल किसी और की होगी। इसके लिए मुँह फुलाने की क्या आवश्यकता है। हम इस दुनिया में खाली हाथ आए थे। खाली हाथ रहेंगे और खाली हाथ ही जायेंगे। इसके लिए खुद को इतना तनाव देना फिजूल है। वहीं बस में खड़े यात्री अपनी ईर्ष्या भरी दृष्टि से बैठने वालों को देखकर कूढ़ते रहेंगे। उनके लिए सारे प्रवचन बेकार लगते हैं। उस समय उनके मुँह से गाली-गलौज की धाराप्रवाह बहती रहती है। बस तो एक है लेकिन सबका दृष्टिकोण अलग-अलग है।            

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657