कहाँ मैंने खो दिया खुद को,
कि घर मुझे ढूंढता है।
यंत्रवत हुआ है जीवन,
कि खुशियों के पल ढूंढता है।
अब न सिलवटें हैं चादर पर,
सब कुछ साफ सुथरा सलीकेदार
गमलों में खिले हैं रंग बिरेंगे पुष्प मगर
बेरंग जीवन में रँगरोगन ढूंढता है
हाँ,घर मुझे ढूँढता है...
ढूँढता है मेरी निश्छल हँसी को,
चंद्रमरीची युक्त शशि को,
और ढूँढता है वो बेतरतिबियाँ,
जो मकान को घर होने का
एहसास था करवाता,
रात दिन नोक झोंक तकरार
में दिन जहाँ गुज़र जाता।
तब पेड़ों में फल पक नहीं पाते थे,
कच्चे पक्के ही सब मिल खा जाते थे।
आज पक कर गिर रहे हैं फल वे सारे,
मिठास से भरे हुये मगर,
अब कोई नहीं हैं उन्हें खाने वाले,
आज सुसज्जित है घर का कोना कोना,
मगर फिर भी उदासी है चारों ओर,
प्रसन्नता आच्छादित हो जहाँ,
वो बिछौना ढूँढता है,
हाँ, घर मुझे ढूँढता है...
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)