औरत और रिश्ते

औरत जब बिखरती है वो ज़्यादा निखरती है,

टूट जाती है अंदर से बाहर वो संवरती है।

पीड़ा रखकर हृदय में रिश्तों को सींचती रहती,

उपेक्षा की हद होने पर हर पीड़ा से उबरती है।


अबला, बेचारी न जाने कितने नाम है इसके,

कहीं देवी तो कहीं बाजारों में दाम हैं इसके,

हाथ थाम पुरुष का निज अस्तित्व को तलाशती,

रिश्तों में विलीन होना सुबह और शाम हैं इसके।


प्रयास की अंतिम उम्मीद तक रिश्ते लेकर चलती है,

स्वाभिमान खोकर भी रिश्तों की बलिवेदी चढ़ती है,

सब्र का मजबूत बाँध टूट जाता है जब,

नदिया की उफान सी फिर वो बहती है।


डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )