70 घंटे काम की निष्ठुर सलाह

प्रसिद्ध आईटी कम्पनी इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति भारत के सफलतम व्यवसायियों में से एक है जिन्हें ऐसा स्वप्नदृष्टा और महत्वाकांक्षी कारोबारी कहा जाता है जिन्होंने देश का नाम ऊंचा किया है। उनकी और इन्फोसिस की कामयाबी की कथाएं आधुनिक प्रबन्धन के पाठों के रूप में दर्ज हैं। वैसे तो उन्हें एक उदार मालिक के रूप में समझा जाता था लेकिन उन्होंने यह कहकर अपना और समस्त भारतीय उद्योग जगत का क्रूर व शोषक चेहरा सामने ला दिया है, जिसमें वे कहते हैं कि चीन से मुकाबला करने के लिये हर युवा को सप्ताह में 70 घंटे काम अवश्य करना चाहिये। 

यह परामर्श उन्होंने इंफोसिस के ही एक पूर्व सीएफओ मोहनदास पई से एक यूट्यूब शो पर बातचीत के दौरान दिया। कई कारोबारियों ने इसका समर्थन किया है। बड़ी संख्या में ऐसे भी उद्यमी व प्रबन्धन सलाहकार हैं जिन्होंने इसे अमानवीय करार देते हुए इसका विरोध किया है। नारायण मूर्ति की यह सलाह इसलिये हैरान कर देने वाली है क्योंकि वह आधुनिक कार्य संस्कृति के विरूद्ध है।

 उनकी सलाह ऐसे समय में आई है जबकि विश्व भर में कर्मचारियों पर से काम का बोझ घटाने तथा उन्हें अपने व परिवारजनों के साथ समय बिताने के लिये अधिक प्रेरित किया जा रहा है। अधिकतम काम लेना मध्ययुगीन सोच है। पहले जब श्रम कानून नहीं बने थे और कामगारों के अधिकारों की सोच विकसित नहीं हुई थी, अधिकतम उत्पादन लेने के लिये उनसे कसकर काम लिया जाता था। वे लगभग गुलामी के हालात थे। जैसे-जैसे प्रबन्धन अधिक वैज्ञानिक एवं मानवीय होता गया और नई शोधें सामने आईं, यह पाया गया कि संतुष्ट कर्मचारी अधिक उत्पादन करता है। 

तभी से लोगों के काम के घंटे घटाये जाने लगे, उन्हें कार्य स्थल से बाहर सुविधाएं दी जाने लगीं। आज आदर्श कार्य पद्धति (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रेक्टिसेस- एसओपी) कर्मचारियों को निचोड़ने में नहीं वरन उन्हें बेहतर वातावरण प्रदान करने में भरोसा करती है। तीसरी दुनिया के ज्यादातर और तानाशाही शासन प्रणाली वाले देशों को छोड़ दिया जाये तो लोगों से दुनिया में कहीं भी इतना काम लेने की परम्परा नहीं है और न ही नियम हैं। डेनमार्क, आस्ट्रिया, नार्वे, फिनलैंड जैसे देशों में अधिकतम 31 घंटे काम लिया जाता है और वे सबसे अधिक उत्पादकता वाले देश हैं। 

वहां सप्ताह में 5 दिन ही काम करने का रिवाज है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा तथा यूरोपीय देशों में भी अधिकतम 41 घंटों का चलन है। इन देशों में भी उत्पादकता की दर बहुत ऊंची है। इसके विपरीत भारत समेत तृतीय विश्व कहलाने वाले एशियाई, अफ्रीकी, लातिन अमेरिकी के ज्यादातर देशों के औद्योगिक एवं कारोबारी प्रतिष्ठान कर्मचारियों से निष्ठुरतापूर्वक काम लेते हैं। उनके वेतनमान विकसित देशों की तुलना में बहुत कम हैं। अन्य सुविधाएं भी न्यूनतम हैं। 

संगठित क्षेत्र में तो फिर भी उन्हें ठीक-ठाक तनख्वाह एवं अन्य सुविधाएं मिलती हैं लेकिन असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मानव संसाधन का एक तरह से कोई माई-बाप ही नहीं है। फिर, ठेका कम्पनियों में और भी बुरा हाल होता है। गिनती के उद्योग-धंधों में श्रमिकों के कल्याण पर ध्यान दिया जाता है। उन्हें बहुत कम वेतन में और कानूनी रूप से तयशुदा काम के घंटों से अधिक समयावधि तक काम करना होता है। 

नारायण मूर्ति की सलाह एक ऐसे व्यक्ति के विचार हैं जो खुद के तथा अपने वर्ग के लोगों के लिये लाभ के नये तरीके ढूंढ़ रहा है। वह भी कम खर्च में। उनकी सलाह अगर मान ली जाये तो साप्ताहिक अवकाश को छोड़कर छह दिन हर कर्मचारी-मजदूर को करीब 12 (11.66) घंटे काम करना होगा। भारत के निजी क्षेत्र में अमूमन 6 दिन का ही कार्य-सप्ताह होता है। कहीं-कहीं ही 5 दिन का है। 

सम्भवत: नारायण मूर्ति को यह गलतफहमी है कि भारत के हर व्यक्ति के पास उनकी तरह नौकर-चाकरों की फौज है। ज्यादातर बड़े शहरों में, खासकर जहां बड़े आईटी हब हैं, काम की जगह तक आने-जाने के लिये औसतन तीन-चार घंटे लग जाते हैं। ये केन्द्र बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे, गुड़गांव आदि शहरों में हैं जहां अधिकतर कर्मचारी 25-50 किलोमीटर की यात्रा कर काम के स्थान पर पहुंचता है और उन्हें घरों को लौटने में उतना ही समय लगता है। 

कोई भी सहज ही यह हिसाब लगा सकता है कि 11-12 घंटे काम करने के लिये कर्मचारियों को कितने बजे सुबह घर से निकलना होगा और वे कितने बजे काम खत्म कर अपने घरों को पहुंचेंगे। क्या इसके बाद उनके पास अपने परिवारजनों के लिये कोई समय बच पायेगा? इंसान के पास उसके सैकड़ों तरह के निजी काम होते हैं। अगर उनके घरों में निजी कामों को निपटाने के लिये और कोई नहीं है तो वे ये काम कैसे कर सकेंगे? मां-बाप की देखरेख से लेकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई सम्बन्धी काम भी उनकी जिम्मेदारियों के हिस्से हैं। फिर, नारायण मूर्ति ने इस सलाह को राष्ट्रवाद से जोड़ने की कोशिश की है। 

उन्होंने 70 घंटे काम करना चीन से मुकाबला करने के लिये जरूरी बताया है। लोगों को उकसाकर उनसे अधिक काम लेने का प्रयास उद्योगों एवं व्यवसायों के लिये कम पैसों में अधिक काम के घंटे निर्मित करना है। भला देश की आम जनता को चीन से स्पर्धा किसलिये करनी है? 

इससे उसे क्या लाभ होगा, यह समझ से परे है। दरअसल नारायण मूर्ति भारत के क्रूर नियोक्ताओं के प्रतिनिधि की भाषा बोल रहे हैं जिनका जनकल्याण से कोई वास्ता नहीं है। अमेरिका में व्यवसाय जगत अपने लाभ का करीब 9 फीसदी लोककल्याण (सीएसआर) के लिये खर्च करता है, जबकि भारत में यह केवल 4 प्रतिशत है। नारायण मूर्ति उन्हीं के नुमाईंदे हैं।