मत ढूंढो समदर्शी

हर शिक्षक से उम्मीद मत करो कि

वे चाहते हो समदर्शी होना,

उनके लिए विद्यार्थी हो सकता है

अपनी सोच का नायाब खिलौना,

खिलौनों से खेलना तो

होती है सबकी फितरत,

क्या एक शिक्षक नहीं कर सकता

अपने किसी शिष्य से नफरत,

जिस समाज में भरा हो अहंकार

अपनी घोर जातियता का,

तब तब उठेंगे सवाल

प्रत्येक शिक्षक की विश्वनीयता का,

हर काल में पैदा होते रहे हैं

कोई न कोई द्रोणाचार्य,

खत्म कर देते हैं सारा हुनर

मांग कर अंगूठा

फिर भी कहलाते हैं

सबसे बड़ा और योग्य आचार्य,

परंपरा आज भी निभाये जा रहे हैं,

हर योग्य एकलव्य का अंगूठा और सर

निरंतर काटे व कटाये जा रहे हैं,

तरीका बदला है नीयत नहीं,

अंगूठा की जगह साक्षात्कार के नंबर

काटते मिल जाएंगे यहीं कहीं,

विपरीत परिस्थितियों के बाद भी

प्रतिभा निखर कर आ जाती है सामने,

मगर बच नहीं सकता कोई शिक्षक

जातिवादी होकर इल्जाम से,

किस्सों और कथाओं में मिलेंगे

बहुत सारे कर्तव्यनिष्ठ सत्यवादी,

असंवैधानिक ब्यवस्थाओं को

ढोते रहेंगे जब तक लोग

तब तक होती रहेगी हुनरमंदों की बरबादी।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग