शराफत! बुरी बला है

इक्कीसवीं सदी की बैलगाड़ी अब पहले से अडवांस हो गयी है। हाँकने वाला सरताज बना बैठा है और बैल उसका दुश्मन। दुश्मन को अपने हिसाब से चलाने के लिए छापा मारने वालों को चाबुक बना रखा है। जब मन चाहा तब चाबुक का इस्तेमाल किया। अपना मतलब साध लिया। 

पहले इस्तेमाल करो, फिर विश्वास करो की तर्ज पर काम करने वाला चाबुक कपड़ा धोने वाले साबुनो का भी बाप है। कपड़ा धोने वाले साबुन मैल निकाले या न निकाले, चाबुक चमड़ी सहित सब कुछ उघेड़ने की पूरी गारंटी देता है। इसलिए यहाँ सरताज बदलते है, चाबुक का अंदाज नहीं।

एक दिन ऐसे ही सरताज के आगे-पीछे घूमने वाले दुम टाइप सेक्रेटरी ने पूछ लिया, साहब! आपने उस बंदे पर छापा क्यों मरवाया? वह तो अच्छा भला काम कर रहा था। लोगों की मदद कर रहा था। साहब ने कहा, सबसे पहले तो हमने छापा नहीं मारा। सर्वे करवाया है।

 जो चीज पता नहीं होती उसके लिए सर्वे और जो चीज पता होती है उसके लिए छापे का इस्तेमाल किया जाता है। हाँ यह अलग बात है कि सर्वे के धड़ से छापे की दुम हमेशा चिपकी रहती है। दोनों को अलग करना तालाब में से आँसू ढूँढ़ने के बराबर है। सरकार अपने समान खड़े होने वाले को सरकाने का काम करती है। बड़ा हो जाए तो वामन बनकर दबाने का काम करती है।

कुल मिलाकर अच्छा करने वाले को बुरा करने पर मजबूर करती है। वैसे भी हमने जिस पर छापा मारा है वह कौनसा दूध का धुला है। फिल्मों में गुंडई का काम करता है और बाहर अपनी शराफत दिखाता है। सरकार कुछ भी सह सकती है, लेकिन किसी की शराफत हरगिज नहीं। हमें उसके गुंडा होने से कोई शिकायत नहीं है, शिकायत है तो उसके हीरो बनने से। सरकार चाहे लाख बुरा करे, वह पाँचवे साल में हीरो बनकर जनता की लुटती आन-बान-शान बचाने आ जाती है। 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657