गर्मी से बेहाल तन की ,
बैचैन प्यासी सूखे कंठ की,
मिटा रही है घोर तृष्णा,
शीतल जल लुटिया की ।
भयंकर सूर्य की ओज है ,
प्यास भी लगी बड़ी तेज है ,
हाथों से बने कटोरेनुमा में ,
उतर रही जल की घूंट है ।
जाने कब से आस थी ,
चुल्लू भर पानी की प्यास थी,
आँखे मूंदकर हर घूंट ली,
न कोई और एहसास थी।
✍️ ज्योति नव्या श्री
रामगढ़ , झारखंड