विपक्ष का पक्ष

लोकतंत्र की नई परिभाषा उस दौर में गढ़ी गयी जब कांग्रेस के भीतर समाजवाद का शिशु जन्म ले रहा था।पंडित नेहरू के एकक्षत्र राज में विपक्ष सदन में समुचित आदर का पात्र था।रामधारी सिंह दिनकर सत्ता द्वारा मनोनीत होने पर भी विपक्ष की भूमिका में रहते थे।डॉ०लोहिया जब कांग्रेस की बधिया उधेड़ते तो नेहरू किसी विद्यार्थी की भांति मौन द्रष्टा बन उनके द्वारा प्रस्तुत अकाट्य तर्कों की स्वीकारोक्ति में सिर हिलाते।

मैं तो तब इस धरा पर नहीं आया था किंतु 1980 से ही शिक्षक पिता द्वारा बी०बी०सी० और आकाशवाणी सुनने की अनिवार्यता और उनके द्वारा लायी गयी पत्रिकाओं को उलटते-पलटते कुछ राजनीतिक चित्र स्मृति पटल पर अंकित हो गए जो बाद में यौवन की दहलीज़ पर थोड़ी बहुत राजनीतिक समझ विकसित कर गये।खैर....अभी बात उस विपक्ष की जो लोकतंत्र की रीढ़ है और प्रतिपक्ष की चेतना का स्थूल रूप भी जिसमें जनता अपना भविष्य निहारती है।

डॉ०लोहिया अपने आप में सचल पुस्तकालय भी थे।उनका आजीवन अपना कोई भी निजी खाता किसी बैंक में नहीं था।उनके वस्त्र और भोजन की व्यवस्था कार्यकर्ता के हवाले रहता और आर्थिक तंगी पर उनके कुछ लेख व संपादकीय प्रेस में छपकर अपने पारिश्रमिक से उनकी गाड़ी सरका देते।उनके व्याख्यान में  समाजवाद,आर्थिक उदारीकरण, सत्ता का विकेंद्रीकरण आदि की रूपरेखा रहती।लोहिया के समाजवाद का नारा देकर सत्ता प्राप्त कर समाजवादी पार्टी कॉर्पोरेट समाजवाद की स्थापना भले कर दी हो लेकिन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी आज भी लोहिया के वास्तविक समाजवाद पर अनुसंधान कर शोधोपाधि ग्रहण कर रहे हैं।

कालांतर में विपक्ष की पंक्ति से उठती आवाजों को  संसद की दीवारों और गवाक्ष तक की गवाही मिलती थी।चंद्रशेखर, अटलविहारी वाजपेयी,इंद्रजीत गुप्त,सोमनाथ चटर्जी,हरकिशन सिंह सुरजीत आदि न जाने कितने नाम हैं जिन्हें विपक्ष में रहते भी लोकसभा के रत्नों के रूप में आदर मिलता था।

1977 में आपातकाल के बाद हुये चुनाव में जनता पार्टी के बहुमत के बाद लोकसभा की सीढ़ियां चढ़ते मोरार जी,चंद्रशेखर, चरण सिंह,जगजीवनराम आदि के साथ लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी की विचारधारा और भारत का गांव जवार भी सदन में परोक्ष रूप से उपस्थिति दर्ज करा रहा था।बाद में सरकार गिर जाने के बाद पुनः सभी विपक्ष की भूमिका में थे।तब उनकी जबान में भी लोक का दर्द और उपेक्षा सदन के पटल पर प्रतिध्वनित होती थी।

विपक्ष का भाषण अखबारों की सुर्खियां बन उनमें प्राण फूंकता था।जो अखबार विपक्ष को जितना अधिक तवज्जो देता उसका प्रसार उतनी ही मात्रा में वार्धक्य पाता था।आज की बिकी हुयी मीडिया सत्ता के खिलाफ लिखना तो दूर उसके अधोवायु को भी गुलाब की खुशबू लिखती व परोसती है।

कहाँ गये वो दिन जब विपक्ष सत्ता की नकेल कसता था।जब लोकविरोधी निर्णयों पर धरने व प्रदर्शन पूरे देश में होते थे।अखबारों की कतरनों पर सरकारें लड़खड़ा जाती थीं। राजनारायण जैसे फक्कड़ नेता धान व गेंहू के गठ्ठल को सदन में रख देने का साहस रखते थे और उन्हीं पुआलों के बंडल से दर्द से विलखते किसानों का चेहरा पूरे सदन को दिखाते।

उच्च न्यायालय के जगमोहन सिन्हा जी के एक निर्णय से इंदिरा जैसी शख्सियत कारागार की ओर उन्मुख होती थीं।अब सर्वोच्च न्यायालय हो या उच्च न्यायालय सब के निर्णय सत्ता के मुखापेक्षी होकर क्रियान्वयन की बाट जोहते हैं।न्यायाधिपति अवकाश ग्रहण के बाद किसी सदन की सीट के लिये सत्ता की चौखट पर चिरौरी करते हैं।

पोस्ट लंबी हो रही है अभी कुछ ज्वलन्त प्रश्नों के साथ बस इतना ही कि कहां गया विपक्ष जब कोरोना काल में लाशों पर चुनाव हो रहे थे? गैस,पेट्रोल,ईंधन,राशन आदि के दामों में बेतहाशा वृद्धि के बाद भी गहरी चुप्पी? जिला पंचायत के चुनावों में हुई अराजकता पर मौन?

आखिर हो भी क्यों न तुमने भी तो सत्ता में रहते यही कृत्य किया था।जनता की गाढ़ी कमाई को अपने दौलतखाने की जागीर बनाकर रुखसत न होते तो सीबीआई व सरकारी जांच एजेंसियों के भय से तुम्हारे मुंह पर फ़ालिज न गिरा होता।चुनाव फिर आयेंगे,सरकार बनाने का दिवा स्वप्न देखना, फिर से ब्राम्हण,क्षत्रिय, यादव,हरिजन का राग अलापना....

फिर से राजकोष का कोष सायकिल पर लादकर घर ले जाना,फिर से हाथी पर सोना लादना,फिर से गांधी,नेहरू का कफ़न बेंचकर जनता को अपना पंजा दिखाना,फिर से सारे मुद्दों को गायब कर राम राम जपना,फिर से वाड्रा फैमिली को उनके भ्रष्टाचार हेतु जेल में डालने का जुमला उछालना,फिर से खण्ड-खण्ड हिन्दू को अखण्ड हिन्दू राष्ट्र का सपना दिखाना.....

मरे हुये विपक्ष के पक्ष को ढूंढ़ती रियाया के साथ एक अदने से कलमकार का अभिवादन।

अंजनीकुमार सिंह

अवध (उ. प्र.)