एक वार्डन की कथा

वह बड़ी ईमानदार है । चार पैसे जरूर इधर-उधर कर लेती है, लेकिन बाकी वार्डनों से बहुत बेहतर है। वैसे भी आज कौन नहीं खाता। नहीं खाए तो शक होता है। सही उम्र में सही काम नहीं करने से उसके परिणाम आगे चलकर भुगतने पड़ते हैं । वह लाख बुरे काम करती होगी लेकिन अपनी चारदीवारी के भीतर। मजाल की कान वाले दीवारें उसका पता लगा लें। मान लो रसोई के लिए चार कैन तेल मंगवाया जाता है तो वह बड़ी ईमानदारी से एक कैन अपने घर भेजवा देती है। कभी उसने उससे ज्यादा नहीं लिया। इससे ज्यादा ईमानदारी और क्या चाहिए। आज के जमाने में ईमानदार वही है जो लूटने में नियंत्रित रहे।

वह हर काम में ईमानदारी दिखाती है। हॉस्टल से लूटे रुपयों-सामानों से शहर में दो-चार कोठियाँ उठा लीं है। लेकिन भाड़े पर गरीबों को दिया है। वह दूसरों का बुरा नहीं करती केवल उनकी कलंक-चर्चा सुनकर स्वयं को समाज में घट रहे घटनाक्रमों से अद्यतन करती है। यदि फिर भी समय बच जाता है तो लड़कियों के बचे छुटकर पैसों से तंबाकू खरीदने के लिए पनवाड़ी वाले का इंतजार करती है।

ईमानदारी का रूप दूसरों की बेईमानी के गन्दे तौलिए से पौंछने पर ही चमकता है । वह हमेशा दूसरों की बेईमानी पुराणगाथा अपनी जुबान पर रखती है। मौका मिले तो शुरु हो जाए। और बेईमानों का मुँह ऐसे धोती है कि सामने वाला फिर से दर्पण देखने लायक नहीं रह जाता। वह दूसरे हॉस्टलों की जब तक दो-चार लड़कियों के भागने, दो-चार के गर्भपात, दो-चार की शादी, छुट्टम-छुटाई और मुँह काला करने पर भी पतिव्रता का नाटक करने वाली प्रसंगों का भोजन कर न लें, उसके बाद दांत खोद न लें, तब तक उसको कहाँ चैन पड़ता है। भोजन के बाद कलंक-चर्चा का चूर्ण फाँकना भी तो जरूरी होता है। 

इससे हाजमा भी अच्छा होता है। एक दिन उसने उसने चूर्ण फाँकना शुरू कर दिया- आपने सुना, अमुक हॉस्टल की लड़की अमुक छोरे के साथ भाग गयी और दोनों ने वरंगल में शादी कर ली । कैसा बुरा जमाना आ गया । मैं जानता हूँ कि वह बुरा जमाना आने से दुखी नहीं, सुखी है, फिर भी मैं उसकी हाँ में हाँ मिला लेता हूँ। यह दुनिया हाँ में हाँ मिलाने वालों से बहुत बतियाती है। थोड़ा भी न-नुकूर करिए तुरंत आपसे कन्नी काट लेती है। जितना बुरा जमाना आयेगा वह उतनी ही सुखी होंगी - तब वे यह महसूस करके और कहकर गर्व अनुभव करेंगी कि इतने बुरे जमाने में भी हमीं सबसे अच्छे हैं" । वह तो बड़ी चालाक है। वह सामूहिक असफलता में से निजी सफलता का मुद्दा निकाल लेती है और अपनी असफलता को समूह की पराजय बताकर मुक्त हो जाती है।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त