चीन और ताइवान का मसला कई दशक पुराना है. वर्ष 1949 में माओ त्से-तुंग से हार कर च्यांग काई शेक ने ताइवान में अपनी सत्ता स्थापित की थी. चीन का इस क्षेत्र पर हमेशा से दावा रहा है, पर ताइवान को लंबे समय तक अमेरिकन समेत पश्चिम का समर्थन रहा. सत्तर के दशक के शुरू में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के प्रयासों से चीन को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ जोड़ा गया और अमेरिकन व चीन के बीच संबंधों का नया दौर प्रारंभ हुआ. तब अमेरिका ने श्वन चाइना पॉलिसी को अपनाया, लेकिन 1979 में अमेरिकी कांग्रेस ने एक प्रस्ताव भी पारित किया, जिसे अमेरिका-ताइवान संबंध समझौता कहा जाता है.
इसके तहत यह प्रावधान है कि ताइवान की सुरक्षा के लिए अमेरिका हर तरह से सहयोग मुहैया करायेगा, पर यह स्पष्ट नहीं था कि आवश्यकता पड़ने पर ताइवान के लिए अमेरिका चीन से लड़ने आयेगा. तब ऐसी स्थिति की आशा भी नहीं थी, क्योंकि चीन कमजोर था, लेकिन चीन पिछले कुछ समय से अमेरिका की वैश्विक प्रधानता को चुनौती देने का प्रयास कर रहा है. इसे अमेरिका ने गंभीरता से लिया है और उसका पूरा ध्यान हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित हो रहा है, ताकि चीन के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके तथा उसके साथ प्रतिस्पर्द्धा की जा सके.
इन परिस्थितियों के बावजूद अमेरिका किसी तरह के संघर्ष के पक्ष में नहीं है. चीन भी ऐसा नहीं चाहता है. ताइवान का मुद्दा चीन के लिए श्रेड लाइन है और इस पर किसी तरह का समझौता नहीं कर सकता है. इसीलिए जब भी ताइवान में अमेरिका से कोई उच्चस्तरीय यात्रा होती है, तो चीन की प्रतिक्रिया आवेगपूर्ण होती है. जब से रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है, अमेरिका की यह कोशिश रही है कि चीन रूस को हथियारों की आपूर्ति न कर सके. चीन भी कहता रहा है कि वह रूस को सैन्य सहयोग नहीं दे रहा है.
इस तरह अमेरिकन और चीन के बीच इस मामले पर एक तरह की सहमति चली आ रही है. ऐसे में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की यात्रा ने वर्तमान समीकरण में हलचल पैदा कर दी है. वे हमेशा से चीन नीतियों का विरोध करती रही हैं. उन्होंने थियानमन स्कवेयर आंदोलन को भी समर्थन दिया था. वे पहले भी ताइवान की यात्रा कर चुकी हैं, लेकिन उन्होंने खुले तौर पर कभी भी ताइवान की स्वतंत्रता की मांग नहीं की है, लेकिन इस समय चीन बेहद नाराज है, क्योंकि उसे लगता है कि उसको चारों ओर से घेरने की कोशिश हो रही है. चीन अभी दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है, इसलिए वह अमेरिका से बराबरी के साथ बातचीत करना चाहता है.
अमेरिका भी अभी यह नहीं चाहता था कि स्थिति बिगड़े, क्योंकि जल्दी ही जी-20 समेत कुछ अहम बैठकें होनी हैं. जब पेलोसी ने अपने एशिया दौरे की घोषणा की थी और उसमें ताइवान जाने की बात थी, तो मेरा मानना है कि उसमें बाइडेन प्रशासन से विचार-विमर्श नहीं किया गया था. बाइडेन प्रशासन की ओर से जो बयान आये, उनमें कहा गया कि पेलोसी हाउस स्पीकर हैं और वे कहीं भी जा सकती हैं, उसमें प्रशासन कुछ नहीं कर सकता है. अमेरिकी सत्ता में हाउस स्पीकर का पद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के बाद तीसरे स्थान पर आता है. चीन ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उसे यह यात्रा स्वीकार्य नहीं है.
इसमें पेलोसी के चीन विरोध का इतिहास भी एक कारक था. कुछ दिन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की लंबी टेलीफोन वार्ता हुई थी, तो उसमें भी इस दौरे पर बातचीत हुई थी और राष्ट्रपति शी ने तो यहां तक कह दिया था कि आग से खेलना ठीक नहीं होगा. उल्लेखनीय है कि जब चार देशों का पेलोसी का कार्यक्रम प्रकाशित हुआ, उसमें ताइवान का नाम नहीं था, लेकिन जब कोई महाशक्ति ऐसी घोषणा कर देता है, तो उसका पीछे हटना बहुत मुश्किल होता है. अब सवाल यह है कि क्या पेलोसी की यात्रा से विश्व शांति, स्थिरता और सुरक्षा के लिए कोई लाभ हुआ, तो इसका उत्तर नकारात्मक है.
यह तो एक नया मोर्चा खोलने की तैयारी जैसी बात है. एक तो ताइवान पर चीन का पुराना दावा है और उस पर वह सैन्य कार्रवाई कर कब्जा भी कर सकारात्मक है, यह उसके संविधान में लिखा हुआ है, पर वह बातचीत और आक्रामक बयान देकर फिलहाल काम चलाना चाहता है. मुझे लगता है कि पेलोसी का दौरा अमेरिका की घरेलू राजनीति की विवशताओं और वैश्विक राजनीतिक स्थिति को ठीक से नहीं समझने का परिणाम है.
चीन ने सैन्य अभ्यास की घोषणा भी यह सोच कर की थी कि शायद अमेरिका इस दौरे पर पुनर्विचार करेगा. बहरहाल, यह अभ्यास ताइवान को एक सबक सिखाने के इरादे से भी प्रेरित है. जापान के एक निंदा प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के कारण चीन ने उसके विदेश मंत्री के साथ होने वाली बैठक रद्द कर दी है. इसके साथ ही ताइवान पर कुछ आर्थिक प्रतिबंध भी लगाये गये हैं. अगर रविवार तक सैन्य अभ्यास समाप्त हो जाता, तो यह माना जाता कि मामला नियंत्रण में आ रहा है, पर चीन ने इसकी अवधि बढ़ा दी है. यह आशंका बढ़ गयी है कि कुछ भी हो सकता है.
रूस-यूक्रेन युद्ध का असर हम देख रहे हैं और अगर एक और मोर्चा खुल जाता है, तो यह बेहद बुरा होगा. जहां तक भारत का सवाल है, तो भारत समेत क्वाड के सदस्य देश चाहते हैं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्वतंत्रता के साथ सामुद्रिक आवागमन सुनिश्चित हो और चीन या कोई और देश उसमें बाधा न उत्पन्न करे. अब चीन ने भी अपनी नौसेना पर अधिक ध्यान शुरू किया है. ताइवान स्ट्रेट्स एक महत्वपूर्ण सामुद्रिक गलियारा है. मेरा मानना है कि चीन अभी ताइवान पर कब्जा नहीं करना चाहता था क्योंकि वहां से उसका अच्छा व्यापार होने के साथ अहम तकनीकी आपूर्ति होती है तथा बड़ी मात्रा में वित्तीय निवेश भी होता है.
चीन का हित इसी में है कि ताइवान के संदर्भ में यथास्थिति बनी रहे. अगर पेलोसी की यात्रा से ताइवान अतिउत्साहित हो जाता है, तो फिर चीन को भी आक्रामक होने का आधार मिल जायेगा. भारत अभी तक वन चाइना पॉलिसी का समर्थन करता रहा है, पर ताइवान के साथ भी भारत के संबंध विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ते जा रहे हैं. लेकिन अगर चीन यह चाहता है कि भारत वन चाइना पॉलिसी का समर्थन करता रहे, तो उसे भी भारत की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता का सम्मान करना होगा.