अक्कड़-बक्कड़ और नुक्कड़

हमारे घर के पास एक नुक्कड़ है। यह नुक्कड़ देश में घटती घटनाओं का जीता-जागता उदाहरण है। कभी-कभार यहीं पर लॉरी आकर ठहरती है। उसमें से कोई बंद मुट्ठी के साथ उतरता है। पुलिस वाले की खुली मुट्ठी में कुछ थमा देता है। जाते-जाते लॉरी वाला गहरा और गुणवत्तापूर्ण काला घनघोर धुआँ छोड़ जाता है। उसी धुएँ में खुली और बंद मुट्ठियाँ गायब हो जाती हैं। यहीं पर एक बत्ती है। यह लाल-पीला और हरा होने के सिवाय कुछ करता नहीं है। नुक्कड़ के मिज़ाज को देखकर बत्ती भी गिरगिट से होड़ ले रही है। कभी गिरगिट तो कभी बत्ती आगे हैं।

इसी नुक्कड़ पर आए दिन नैतिक मूल्य अपनी टाँगे तुड़वाते नजर आते हैं। नकल नहीं करवाने, कड़ाई करने और प्राइवेट में ट्युशन पढ़ाने वाले अध्यापकों की पिटायी यहाँ आम बात है। फेल करने वाले अध्यापकों की आवभगत तो बड़ी तबियत से की जाती है। कोई उन्हें देख न लें इसलिए नुक्कड़ के पास देश का भविष्य ऊँचा करने वाले अपना सिर नीचा करके चलता है। इनसे तो अच्छे कुत्ते हैं। 

जो मिठाई वाले की दुकान पर पड़े जूठे दोने खा-खाकर इतने हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं कि इन्हें भगाना तो दूर इनकी ओर देखना तक पेट पर चौदह इंजेक्शन लगाने के बराबर होते है। ये कुत्ते इतने शरारती होते हैं कि बच्चों के हाथ से लड्डू, स्त्री के आंचल में छिपा नारियल, बूढ़ों का कटोरा छीनकर रफू-चक्कर हो जाते हैं।

यह नुक्कड़ नंगापन का अड्डा है। भरी दुपहरी में लड़की का अपहरण हो जाता है। आए दिन बच्चों की दीपावली की तरह महजबपरस्त धमाका करते हैं। इतना ही नहीं सुबह से लेकर रात तक भड़काऊ कागज़ के टुकड़े बांटते और जरूरत पड़ने पर अपनी भड़ास सिर तन से जुदा करके निकालते हैं। रेहड़पट्टी पर बैठने वाले कमाते कम हैं, गंवाते ज्यादा है। 

फेक फोन पे और गूगल पे के चक्कर में फेक ग्राहकों से अपनी बैंड खुद बचवाते हैं। यह नुक्कड़ नहीं साहब स्वर्ग जाने का शार्टकट है। पनवाड़ी की दुकान पर बने लाल-लाल पीक के निशान आते-जाते लोगों को परलोक का रास्ता बतलाने का काम करते हैं। बिना बिरयानी, पैसों के भीड़ जुटाना आज के जमाने का सबसे मुश्किल काम है। नुक्कड़ इस बात का अपवाद है। इसीलिए सरकार आए दिन इस पर जीएसटी लगाने का विचार कर रही है।

इस नुक्कड़ से इतनी सड़कें हो कर गुजरती हैं जितनी एक योजना के साथ भ्रष्टाचार के मार्ग। भ्रष्टाचार में कहीं कोई गड्ढे नहीं हैं  इसीलिए नेतागण मक्खन की तरह यात्रा करते हैं। यह मात्र एक नुक्कड़ नहीं है। एक बेटे के हाथों बाप को, एक विधवा को, असहाय जानवरों को बदतर से बदतर पीटा जाता है। इसी नुक्कड़ पर एक मूर्ति है। है तो हरीश्चंद्र की, लेकिन दान और सत्य का उनसे कोई नाता नहीं है।

इन्हीं मूर्तियों के नाम पर वोट बटोरने का प्रयास करते हैं। मूर्तियाँ हैं कि न खांसकर मुख्यमंत्री बन सकती हैं न हिला-डुलाकर कोई कुछ। यह सब कुछ देखते हुए कहने में असमर्थ हैं। दुर्भाग्य से अब जीती-जागती मूर्तियाँ उच्च पदों पर डेरा जमाए हुए हैं। यह नुक्कड़ नहीं मिनी देश है। जहाँ बिजली की गति से ज्यादा तेज कपड़े, झंडे और जरूरत पड़ी तो पार्टी बदल देते हैं।  अब अक्कड़-बक्कड़ खेल से ज्यादा नुक्कड़ का खेल जोर-शोर से चल रहा है।      

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657